Hindi, asked by diya25dbdndnd, 1 month ago

प्रकृती के प्रति हमारे कत्तर्व्य विषय पर एक अनुछेद लिखिए​

Answers

Answered by leelarana
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Answer:

प्रकृति की सुंदरता को बढ़ाने के लिए अधिक से अधिक पेड़ लगाएं।

जलीय जंतुओं की जान बचाने के लिए जलाशयों को साफ रखें।

प्राकृतिक आपदाओं से बचाव के लिए प्रकृति के चक्र को बाधित न करें।

Explanation:

Answered by 123asdf456ghjk
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Answer:

प्रकृति ने मनुष्य को अनूठी प्रतिभा, क्षमता, सृजनशीलता, तर्कशक्ति देकर विवेकशील, चिंतनशील एवं बुद्धिमान प्राणी बनाया है। अतः मनुष्य का दायित्व है कि वह प्राकृतिक संसाधनों में संतुलित चक्र को बनाए रखते हुए स्वस्थ वातावरण का निर्माण कर अपना पुनीत कर्तव्य समझे। आज का मानव अपने उत्तरदायित्वों से मुंह मोड़ रहा है, क्योंकि भौतिकवाद व औद्योगीकरण ने उसे स्वार्थी बना दिया है। भारत में पर्यावरण की समस्या अत्यधिक औद्योगीकरण का परिणाम नहीं, बल्कि विकास का अपूर्णता का द्योतक है।

मनुष्य में कई तत्व माने गए हैं। जैसे- अन्नतत्व, प्राणतत्व, बुद्धितत्व और आत्मतत्व। प्राणतत्व के लिए प्राणवायु की आवश्यकता की आवश्यकता होती है।

मनुष्य ने पशुओं का उपयोग विभिन्न प्रकार से किया है। अतः पर्यावरण का आशय है- पुश-जगत्, वनस्पति-जगत्, जल-जगत् एवं वायु, नदी, पहाड़, खनिज संपदा- जो प्रकृति की देन हैं।

पर्यावरण उन जैविक तथा अजैविक घटकों का समूह है, जो परस्पर प्रक्रिया द्वारा मानव तथा जीव-जंतुओं के जीवन को प्रभावित करता है। इतना सब होने पर भी विभिन्न प्राकृतिक घटकों का संतुलन बिगड़ जाने से संपूर्ण पर्यावरण-तंत्र अस्थिर हो जाता है। इस अस्थिरता को पर्यावरण प्रदूषण कहते हैं। इसके विपरीत जब प्रकृति के सभी घटकों में संतुलन बना रहता है तो उसे पर्यावरण संरक्षण कहते हैं।

प्रकृति का महत्व हमारे जीवन में सौंदर्य की दृष्टि से ही नहीं, बल्कि हमने सदैव उसे अपने प्राण से भी ज्यादा प्यारा समझा है। प्राण की सुरक्षा किसी व्यक्ति के लिए जितनी अहमियत रखती है, उतनी ही महत्ता प्रकृति को प्रदान करते हुए पूजनीय समझा है। ये सभी संस्कारों एवं त्यौहारों में कभी शमी के रूप में तो कभी पीपल, बड़, तुलसी के रूप में विराजते हैं।

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भगवान कृष्ण ने गीता में विभूतियोग में वृक्षों की महिमा का बखान किया है। हमारी संस्कृति वनों-तपोवनों में फली-फूली है, हम वृक्षों को देने वले अर्थात् देवता समझकर कृतज्ञ भावना के उज्जवल आदर्श को प्रस्तुत करते हैं। हमारे देश में कन्याएं पेड़ों की थालों को सींचती हैं। उनका विश्वास है कि उनके इस कृत्य से आशीर्वाद प्राप्त होगा और उन्हें अच्छा वर प्राप्त होगा।

प्रकृति का संरक्षण हमारा कर्तव्य

दुष्यंत राजा पेड़ों को पानी डालती शकुंतला पर मुग्ध हो गए थे। वह पेड़-पौधों को अपने सगे-संबंधियों जैसा प्यार करती थी। भगवती पार्वती को देवदार से अगाध प्रेम था, यह जाहिर है, क्योंकि स्वयं पार्वती ने अपने सोने के घट रूप स्तनों के रस से सींच-सींचकर उसे उतना बड़ा पेड़ बनाया था। पेड़ हमारे उपदेशक हैं, जो हमें निरंतर भेदभाव के बिना निःस्वार्थ भाव से देने में विश्वास करते हैं।

बड़े होकर फल-फूलों के भार से झुके हुए पेड़ विनम्र होने का उपदेश देते हैं, जो हमारे सभ्यता व संस्कृति का मूलभूत आधार हैं। महाकवि रसखान, तुलसीदासजी ने भी अपने काव्य में पेड़ों का वर्णन किया है। अशोक महान ने लोकहितार्थ पेड़ लगवाए। ऐसे अनेक उदाहरण भारतीय इतिहास में उपलब्ध हैं। जिन पेड़ों ने आदर्श व उत्प्रेरणा प्रदान की है, उनके प्रति संवेदनशील होकर उनका संरक्षण करना हमारा कर्तव्य स्वतः ही बन जाता है।

नदियां भी हमारे लिए पूजनीय

इसी प्रकार हमारी पवित्र नदियां हमारे लिए पूजनीय रही हैं। उनके पास बैठकर स्नान करने मात्र से हम अपने जीवन को सफल मानते हैं। हरिद्वार में हर की पौड़ी सारे भारतीयों के लिए श्रद्धेय है। हमारी पवित्र नदियों पर ही देश की संस्कृति व आर्थिक ढांचा टिका हुआ है। वन जीवों की उपयोगिता के कारण उनका संरक्षण भारतीय संस्कृति का विशिष्ट और अभिन्न अंग रहा है। मोर सरस्वती के साथ सिंह महाकाली के साथ, इंद्र हाथी के साथ, चूहा गणेश के साथ पूजा जाता है।

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ज्योतिष में राशियों के नाम पशुओं के नाम पर हैं। अशोक स्तंभ पर वन-जीवों की सुरक्षा का निर्देश भी उपलब्ध है। भारतीय मां जिस प्रकार विभिन्न प्रकार के कष्ट सहन कर भी बच्चों का संरक्षण करते हुए उनके विकास व संरक्षण के प्रति सचेष्ट रहती है, उनकी आवश्यकता की पूर्ति हेतु समर्पित रहती है, ठीक इसी प्रकार प्रकृति हमारी सभी आवश्यकताओं की पूर्ति करती है।

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