Hindi, asked by amreen1909, 7 months ago

प्रश्न-1 फालगुन में सावन के कवि का सही नाम बताएं?
क- शिवमंगल सिंह सुमन
ख- भारतेंदु हरिश्चंद
ग- जयशंकर प्रसाद
घ. रामधारी सिंह दिनकर​

Answers

Answered by rashmimarkam90
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Explanation:

तुम जो जीवित कहलाने के हो आदी

तुम जिसको दफ़ना नहीं सकी बरबादी

तुम जिनकी धड़कन में गति का वन्दन है

तुम जिसकी कसकन में चिर संवेदन है

तुम जो पथ पर अरमान भरे आते हो

तुम जो हस्ती की मस्ती में गाते हो

तुम जिनने अपना रथ सरपट दौड़ाया

कुछ क्षण हाँफे, कुछ साँस रोककर गाया

तुमने जितनी रासें तानी, मोड़ी हैं

तुमने जितनी सांसें खींची, छोड़ी हैं

उनका हिसाब दो और करो रखवाली

कल आने वाला है साँसों का माली

कितनी साँसों की अलकें धूल सनी हैं

कितनी साँसों की पलकें फूल बनी हैं?

कितनी साँसों को सुनकर मूक हुए हो?

कितनी साँसों को गिनना चूक गये हो?

कितनी सांसें दुविधा के तम में रोयीं?

कितनी सांसें जमुहाई लेकर खोयीं?

जो सांसें सपनों में आबाद हुई हैं

जो सांसें सोने में बर्बाद हुई हैं

जो सांसें साँसों से मिल बहुत लजाईं

जो सांसें अपनी होकर बनी पराई

जो सांसें साँसों को छूकर गरमाई

जो सांसें सहसा बिछुड़ गईं ठंडाई

जिन साँसों को छल लिया किसी छलिया ने

उन सबको आज सहेजो इस डलिया में

तुम इनको निर्रखो परखो या अवरेखो

फिर साँस रोककर उलट पलट कर देखो

क्या तुम इन साँसों में कुछ रह पाये हो?

क्या तुम इन साँसों से कुछ कह पाये हो?

इनमें कितनी ,हाथों में गह सकते हो?

इनमें किन किन को अपनी कह सकते हो?

तुम चाहोगे टालना प्रश्न यह जी भर

शायद हंस दोगे मेरे पागलपन पर

कवि तो अदना बातों पर भी रोता है

पगले साँसों का भी हिसाब होता है?

कुछ हद तक तुम भी ठीक कह रहे लेकिन

सांसें हैं केवल नहीं हवाई स्पंदन

यह जो विराट में उठा बबंडर जैसा

यह जो हिमगिरि पर है प्रलयंकर जैसा

इसके व्याघातों को क्या समझ रहे हो?

इसके संघातों को क्या समझ रहे हो?

यह सब साँसों की नई शोध है यह सब साँसों का मूक रोध है भाई

जब सब अंदर अंदर घुटने लगती है

जब ये ज्वालाओं पर चढ़कर जगती है

तब होता है भूकंप श्रृंग हिलते हैं

ज्वालामुखियों के वो फूट पड़ते हैं

पौराणिक कहते दुर्गा मचल रही है

आगन्तुक कहते दुनिया

चलना हमारा काम है / शिवमंगल सिंह ‘सुमन’

गति प्रबल पैरों में भरी

फिर क्यों रहूं दर दर खडा

जब आज मेरे सामने

है रास्ता इतना पडा

जब तक न मंजिल पा सकूँ,

तब तक मुझे न विराम है,

चलना हमारा काम है।

कुछ कह लिया, कुछ सुन लिया

कुछ बोझ अपना बँट गया

अच्छा हुआ, तुम मिल गई

कुछ रास्ता ही कट गया

क्या राह में परिचय कहूँ,

राही हमारा नाम है,

चलना हमारा काम है।

जीवन अपूर्ण लिए हुए

पाता कभी खोता कभी

आशा निराशा से घिरा,

हँसता कभी रोता कभी

गति-मति न हो अवरूद्ध,

इसका ध्यान आठो याम है,

चलना हमारा काम है।

इस विशद विश्व-प्रहार में

किसको नहीं बहना पडा

सुख-दुख हमारी ही तरह,

किसको नहीं सहना पडा

फिर व्यर्थ क्यों कहता फिरूँ,

मुझ पर विधाता वाम है,

चलना हमारा काम है।

मैं पूर्णता की खोज में

दर-दर भटकता ही रहा

प्रत्येक पग पर कुछ न कुछ

रोडा अटकता ही रहा

निराशा क्यों मुझे?

जीवन इसी का नाम है,

चलना हमारा काम है।

साथ में चलते रहे

कुछ बीच ही से फिर गए

गति न जीवन की रूकी

जो गिर गए सो गिर गए

रहे हर दम,

उसी की सफलता अभिराम है,

चलना हमारा काम है।

फकत यह जानता

जो मिट गया वह जी गया

मूंदकर पलकें सहज

दो घूँट हँसकर पी गया

सुधा-मिक्ष्रित गरल,

वह साकिया का जाम है,

चलना हमारा काम है।

मैं नहीं आया तुम्हारे द्वार / शिवमंगल सिंह ‘सुमन’

मैं नहीं आया तुम्हारे द्वार

पथ ही मुड़ गया था।

गति मिली मैं चल पड़ा

पथ पर कहीं रुकना मना था,

राह अनदेखी, अजाना देश

संगी अनसुना था।

चांद सूरज की तरह चलता

न जाना रात दिन है,

किस तरह हम तुम गए मिल

आज भी कहना कठिन है,

तन न आया मांगने अभिसार

मन ही जुड़ गया था।

देख मेरे पंख चल, गतिमय

लता भी लहलहाई

पत्र आँचल में छिपाए मुख

कली भी मुस्कुराई।

एक क्षण को थम गए डैने

समझ विश्राम का पल

पर प्रबल संघर्ष बनकर

आ गई आंधी सदलबल।

डाल झूमी, पर न टूटी

किंतु पंछी उड़ गया था।

असमंजस / शिवमंगल सिंह ‘सुमन’

जीवन में कितना सूनापन

पथ निर्जन है, एकाकी है,

उर में मिटने का आयोजन

सामने प्रलय की झाँकी है

वाणी में है विषाद के कण

प्राणों में कुछ कौतूहल है

स्मृति में कुछ बेसुध-सी कम्पन

पग अस्थिर है, मन चंचल है

यौवन में मधुर उमंगें हैं

कुछ बचपन है, नादानी है

मेरे रसहीन कपालो पर

कुछ-कुछ पीडा का पानी है

आंखों में अमर-प्रतीक्षा ही

बस एक मात्र मेरा धन है

मेरी श्वासों, निःश्वासों में

आशा का चिर आश्वासन है

मेरी सूनी डाली पर खग

कर चुके बंद करना कलरव

जाने क्यों मुझसे रूठ गया

मेरा वह दो दिन का वैभव

कुछ-कुछ धुँधला सा है अतीत

भावी है व्यापक अन्धकार

उस पार कहां? वह तो केवल

मन बहलाने का है विचार

आगे, पीछे, दायें, बायें

जल रही भूख की ज्वाला यहाँ

तुम एक ओर, दूसरी ओर

चलते फिरते कंकाल यहाँ

इस ओर रूप की ज्वाला में

जलते अनगिनत पतंगे हैं

उस ओर पेट की ज्वाला से

कितने नंगे भिखमंगे हैं

इस ओर सजा मधु-मदिरालय

हैं रास-रंग के साज कहीं

उस ओर असंख्य अभागे हैं

दाने तक को मुहताज कहीं

इस ओर अतृप्ति कनखियों से

सालस है मुझे निहार रही

उस ओर साधना पथ पर

मानवता मुझे पुकार रही

तुमको पाने की आकांक्षा

उनसे मिल मिटने में सुख है

किसको खोजूँ, किसको पाऊँ

असमंजस है, दुस्सह दुख है

बन-बनकर मिटना ही होगा

जब कण-कण में परिवर्तन है

संभव हो यहां मिलन कैसे

जीवन तो आत्म-विसर्जन है

सत्वर समाधि की शय्या पर

अपना चिर-मिलन मिला लूँगा

जिनका कोई भी आज नहीं

मिटकर उनको अपना लूँगा।

पतवार / शिवमंगल सिंह ‘सुमन’

तूफानों की ओर घुमा दो नाविक निज पतवार।

आज सिन्धु ने विष उगला है

लहरों का यौवन मचला है

आज ह्रदय में और सिन्धु में

साथ उठा है ज्वार

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