Hindi, asked by harsh851086, 8 hours ago

प्रश्न -2. 'कविता का भविष्य' पाठ के आधार पर आचार्य महावीरप्रसाद द्विवेदी की आलोचना दृष्टि को स्पष्ट
कीजिए।​

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Answered by itzjanu519
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Explanation:

आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी हिन्दी आलोचना के प्रथम आधार स्तम्भ है। उन्होंने हिन्दी आलोचना को परम्परा से हटकर एक नवीन सांस्कृतिक भूमि पर प्रतिष्ठित किया। जिसका सूत्रपात भारतेन्दु-युग में श्री बालकृष्ण भट्ट ने किया था। उनका एक महत्त्वपूर्ण निबन्ध सन् १९२० में 'कविता और भविष्य' निकला। जिसमें धूल भरे किसान और मैल मजदूर की हिमायत करते हैं। तथा असाधारण के स्थान पर साधारण को प्रतिष्ठित करने की बात करते हैं। उन्होंने कहा था- भविष्य कवि का लक्षण इधर ही होगा। अभी तक वह मिट्टी में सने हुए किसानों और कारखानों से निकले हुए मैल मजदूर को अपने कार्यों का नायक बनाना नहीं चाहता था वह राज-स्तुति, वीर-गाथा अथवा प्रकृति वर्णन में ही लीन रहता था, परन्तु अब वह क्षुद्रो की भी महत्ता देखेगा और तभी जगत् का स्वरूप सबको विदित होगा।[१]

द्विवेदीजी साहित्य को उपयोगिता की कसौटी पर आंकते और उसे 'ज्ञानराशी का संचित कोष' मानते थे। द्विवेदी युग ने ज्ञान की साधना पर विशेष बल दिया। इस युग के लेखक प्राचीन भारत के ज्ञान-विज्ञान की खोज और पश्चिम के नये आलोक से अपने देशवासियों को परिचित कराना चाहते थे। द्विवेदी युग ने हिंदी को जितने विद्वान दिए, आधुनिक भारत के अन्य किसी युग ने नहीं। पं. चन्द्रधर शर्मा गुलेरी, पं. गौरीशंकर हीराचंद ओझा, पं. सुधाकर द्विवेदी आदि।[२]

वे प्राचीन साहित्य के क्षयिष्णु अंश को हानिकर समझते, नायिका भेद आदि पर लिखित पुस्तकों के विरोधी थे। आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी ने संस्कृत के कई लब्धप्रतिष्ठ कवियों की समालोचना की। उन्होंने विक्रमांकदेव चरित्र, नैषध चरित चर्चा तथा कालिदास की निरंकुशता जैसे निबंध लिखे। ये निबन्ध परिचयात्मक होने के साथ कृतियों के गुण-दोषों पर भी प्रकाश डालते हैं। आचार्य द्विवेदी यर्थाथ को काव्य के लिए आवश्यक मानते हैं। यर्थाथ से उनका तात्पर्य कवि द्वारा अनुभूत सत्य से है। उनका मत है कवि को अपने ऊपर किसी दबाव में आकर कोई पाबंदी नहीं लगनी चाहिए।[३]

'कवि कर्त्तव्य' नामक निबन्ध से भी द्विवेदी के कविता सम्बन्धी विचारों का पता चलता है। उनका मत है कि गंध और पध की भाषा पृथक-पृथक नहीं होनी चाहिए। साहित्य उसी भाषा में रचा जाना चाहिए, जिसे सभ्य समाज व्यवहार में लाता है। उन्होंने हिन्दी साहित्य के विकास को देखते हुए इस बात की भविष्यवाणी कर दी थी कि "यह निश्चित है कि किसी समय बोलचाल की हिन्दी-भाषा, ब्रजभाषा की कविता के स्थान को अवश्य ही ले लेगी... बोलना एक भाषा और कविता में प्रयोग करना दूसरी भाषा प्राकृतिक नियमों के विरुद्ध है।"[४]

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