प्रश्न 23. डॉ. वासुदेव शरण अग्रवाल अथवा रामनारायण उपाध्याय का साहित्यिक परिचय
लखित बिन्दुओं के आधार पर दीजिए-
(i) दो रचनाएँ, (ii) भाषा-शैली, (iii) साहित्य में स्थान।
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Answers
Explanation:
शैली
जहाँ एक ओर आपने सामाजिक बुराइयों को उजागर कर उन्हें दूर करने के लिए व्यंग्यात्मक शैली का प्रयोग किया गया है वहीं दूसरी ओर आपने अपने समस्त नाटक नाट्य-शैली में प्रस्तुत किये हैं। संवादों की लघुता, भावों की गहराई का परिचय देती है। एकांकियों की शैली मंचीय है। व्यंग्यात्मक स्थानों में उद्धरण, व्याख्या, व्यास और सूक्ति शैली को अपनाया गया है।
साहित्य में स्थान
नई पीढ़ी के नाटककारों में डॉ. सुरेश शुक्ल ‘चन्द्र’ को एक विशिष्ट एवं महत्वपूर्ण स्थान प्राप्त है। आपने नाटक,कहानी,एकांकी, कविता, उपन्यास, आत्मकथा तथा समीक्षात्मक विधाओं में हिन्दी साहित्य को अनुपम कृतियाँ प्रदान की हैं। कृतियों की मौलिकता के कारण डॉ.शक्ल अग्रणी साहित्यकारों में गिने जाते हैं।
7. पं. रामनारायण उपाध्याय
[2009, 11, 14, 17]
घर के विद्वत् वातावरण तथा संस्कृतनिष्ठ संस्कारों से युक्त पं. रामनारायण उपाध्याय ने मध्य प्रदेश की आदिवासी संस्कृति को साहित्य में उतारने का प्रशंसनीय कार्य किया है। उनका साहित्य ग्रामीण को उजागर करने में सफल रहा है। वह अपने पाठकों को अपनी बात बताने में सहजता की डोर पकड़े रहते हैं।
जीवन परिचय
पं.रामनारायण उपाध्याय का जन्म 20 मई,सन् 1918 को कालमुखी नामक ग्राम,जिला (खण्डवा) मध्य प्रदेश में हुआ था। आपके पिता का नाम श्री सिद्धनाथ तथा माता का नाम दुर्गादेवी था। आपने साहित्य वाचस्पति की उपाधि प्राप्त की और पण्डित कहलाने लगे। आपने अंग्रेजी-हिन्दी का विशद अध्ययन किया जिस कारण आपका जीवन दृष्टिकोण भी अति उदार तथा विशाल बना। आप ग्रामीण जीवन व माटी से जुड़े रहे। यही ग्रामीण वातावरण आपके साहित्य में परिलक्षित होता है। आप गाँधीवादी विचारधारा से पूरी तरह प्रभावित थे। आपकी लेखनी सत्य और मानव कल्याण के लिये थी। ग्राम संस्कृति के चितेरे पं.रामनारायण उपाध्याय 20 जून,सन् 2001 को स्वर्गवासी हए।
साहित्य सेवा
निमाडी लोक साहित्य के मर्मज्ञ पं. उपाध्यायजी जन्मजात प्रतिभासम्पन्न साहित्यकार थे। ‘ अत: लिखने के लिए एकान्त के अतिरिक्त उन्हें किसी वस्तु व साधन की आवश्यकता नहीं थी। वे ‘मध्य प्रदेश आदिवासी लोक कला परिषद्-भोपाल’ तथा ‘राष्ट्र भाषा परिषद भोपाल’ के संस्थापक सदस्य रहे। आपने अपनी पत्नी शकुन्तला देवी की स्मृति में ‘लोक-संस्कृति न्यास की स्थापना 27 नवम्बर, सन् 1989 को की। आपको लोक संस्कृति शोध संस्थान, चुरू (राजस्थान) द्वारा ‘निमाड़ का सांस्कृतिक इतिहास’ पर झवेर चन्द मेधाणी स्वर्णपदक (1982) में, उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान द्वारा सम्मान (1986) में, इंडियन फोकलोर सोसायटी, कलकत्ता द्वारा भोजपुरी सम्मेलन, रेणुकूट, वाराणसी में हिन्दी साहित्य सम्मेलन, इलाहाबाद द्वारा ‘साहित्य वाचस्पति’ (1993) में,तथा मध्य प्रदेश हिन्दी साहित्य सम्मेलन भोपाल द्वारा 11000 रुपये का भवभूति अलंकरण’ (1996) में प्राप्त हुआ। पंडितजी की प्रकाशित रचनाओं की संख्या चालीस से अधिक है। ‘कुंकुम-कलश और आम्रपल्लव’, ‘हम तो बाबुल तोरे बाग की चिड़िया’, ‘कथाओं की अन्तर्कथाएँ’, ‘चतुर चिडिया’ तथा ‘निमाड़ का लोक-साहित्य और उसका इतिहास’ उनकी पुरस्कृत रचनाएँ हैं।
रचनाएँ
पं. उपाध्याय जी ने साहित्य की विविध विधाओं; जैसे-व्यंग्य, निबन्ध, संस्मरण, रेखाचित्र, रिपोर्ताज,लघु कथाएँ आदि में लिखा।
संस्मरण-कथाओं की अन्तर्कथाएँ’, जिन्हें भूल न सका।
व्यंग्य–’बख्शीश नामा’, ‘घुघराले काँच की दीवार’।
ललित निबन्ध–’जनम-जनम के फेरे’, ‘आओ अब घर चलें’ ‘आस्थाओं की जमीन’।
लोक साहित्य-निमाड़ का सांस्कृतिक इतिहास’, ‘लोक जीवन में राम’।
पत्र-संग्रह–’चिट्ठी-पत्री’।
व्यक्तित्व-कृतित्व-‘मामूली आदमी’, ‘धरती का बेटा’। वर्ण्य विषय बहुमुखी प्रतिभा के धनी पं.उपाध्याय जी को अपने गाँव से ही साहित्य रचने की प्रेरणा मिली। उनकी सम्पर्क-शीलता, जनसाधारण से पत्र-व्यवहार और परिचय की व्यापकता ने
उन्हें साहित्य रचना का वर्ण्य-विषय प्रदान किया। निमाड़ी लोक-जीवन को साहित्य में उतारने का सराहनीय कार्य पंडितजी ने किया। एक सच्चे किसान की भावुकता,सहृदयता और क्रियाशीलता उनके साहित्य में सर्वज्ञ दिखाई देती है। गाँधीवादी जीवन और विचारधारा के साथ ग्राम और ग्राम्य संस्कृति उनकी रचनाओं के आधार है
शैली
पं.रामनारायण उपाध्याय जी की शैली में विविधता है। “मैं क्यों लिखता हूँ?” निबन्ध में उन्होंने आत्मपरक शैली को अपनाया। लोक साहित्य में वर्णनात्मक शैली को निभाया। इस शैली की भाषा सरल व प्रवाहपूर्ण है। अपनी बात को प्रभावशाली बनाने के लिए उन्होंने यत्र-तत्र सूत्रात्मक शैली को अपनाया है। व्यंग्यात्मक निबन्धों में व्यंग्यात्मक शैली को अपनाया तो संस्मरणों में भावात्मक शैली को। इस प्रकार लेखक ने समय के अनुसार विविध शैलियों का प्रयोग करके अपने साहित्य का कलेवर सजाया है।
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