प्रश्न 3अंतजाात बलों के दो उदाहिण बताइये। उत्ति 3
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उदात्त (Sublime) काव्याभिव्यंजना के वैशिष्ट्य एवं उत्कर्ष का कारणतत्व है जिसका प्रतिपादन लोंगिनुस (लांजाइनस) ने अपनी कृति "पेरिइप्सुस" (काव्य में उदात्त तत्व) में किया है। इसके अनुसार उदात्त तत्व शैली की वह महत्वपूर्ण एंव महत्तम विशेषता है जो विभिन्न व्यंजनाओं के माध्यम से किसी घटना अथवा व्यक्तित्व के रोमांटिक, आवेशपूर्ण तथा भयंकर पक्ष की अभिव्यक्ति के लिए प्रयुक्त होती है। सच्चे औदात्य के स्पर्श मात्र से मानवात्मा सहज ही उत्कर्ष को प्राप्त हो जाती है, सामान्य धरातल से ऊपर उठकर आनंद और उल्लास से आप्लावित होने लगती है और श्रोता अथवा पाठक को महसूस होने लगता है कि जो कुछ उसने श्रवण किया या पढ़ा है, वह स्वयं उसका अपना भोगा हुआ है। इसके विपरीत किसी कृति को बार-बार पढ़ने या सुनने के बाद भी यदि व्यक्ति की आत्मा उन्नत विचारों की ओर प्रवृत्त नहीं होती तो स्पष्ट ही उक्त कृति में प्रतीयमान अर्थ से अधिक विचारोत्तेजक सामग्री का अभाव रहता है और उसे उदात्त-तत्व-समन्वित नहीं माना जा सकता। उदात्त-गुण-युक्त कृति न केवल सभी को सर्वदा आनंदित करती है, अपितु विसंवादी तत्वों के संयोग से एक ऐसे वातावरण का निर्माण भी करती है कि उसके प्रति पाठक अथवा श्रोता की आस्था और भी गहरी एवं अमिट हो जाती है।
परिचयसंपादित करें
पाश्चात्य साहित्यशास्त्र में उदात्त (हिंदी में अंग्रेजी शब्द "सब्लाइम' का रूपांतर) पर एक लंबे समय से विचार होता चला आ रहा है। लोंगिनुस से पूर्व अरस्तू ने अपने "विरेचन सिद्धांत' की व्याख्या में उदात्त का विरेचन प्रक्रिया के सर्वाधिक सहायक तत्व के रूप में उल्लेख किया है। इसके पश्चात् रोबोरतेलो, ब्वायलो, हीगेल, कांट, ब्रैडले, कैरेट, ब्रुक, वाल्टर पेटर, सांतायना, बर्क, बोसाँके, जुंग आदि पाश्चात्य कलासमीक्षकों ने इस विषय का विस्तृत विवेचन किया है।
लोंगिनुस के अनुसार उदात्त आलंबन के गुण हैं : जीवन्त आवेग, प्रचुरता, तत्परता, जहाँ उपयुक्त हो वहाँ गति तथा ऐसी शक्ति एवं वेग जिसकी समता संभव न हो। उदात्त की अनुभूति के अंतस्तत्व मन की ऊर्जा, उल्लास, अभिभूति (संपूर्ण चेतना के अभिभूत हो जाने की अनुभूति), आदर तथा विस्मयमिश्रित संभ्रम बताए गए हैं।
लोंगिनुस ने उदात्त भाषा के पाँच मुख्य स्रोतों का भी उल्लेख किया है :
(१) महान् विचारोद्भावना की क्षमता,
(२) उद्दाम और प्रेरणाप्रसूत आवेग,
(३) समुचित अलंकारयोजना,
(४) साधु भाषा तथा
(५) गरिमामय रचनाविधान।