Hindi, asked by paramjeetsinghdelhi8, 3 months ago

प्रश्न 9.सिंघु बॉर्डर पर चल रहे किसान आंदोलन पर अपने विचार 80 से
100 शब्दों में लिखिए। (5)​

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Answered by ranurai58
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Answer:

उत्तर भारत के किसानों ने काफ़ी लंबे समय के बाद राजधानी दिल्ली को अपने विरोध का गढ़ बनाया है. दिल्ली में जो देखने को मिल रहा है वो 32 साल पहले दिखा था.

पश्चिमी उत्तर प्रदेश के किसान नेता महेंद्र सिंह टिकैत लाखों किसानों को लेकर बोट क्लब पहुँच कर धरने पर बैठ गए थे. माँग थी कि गन्ने की फ़सल के दाम ज़्यादा मिलें और बिजली-पानी के बिलों में छूट मिले, जो पूरी भी हुई.

मौजूदा आंदोलन अब दो हफ़्ते से ज़्यादा चल चुका है और दिल्ली के बॉर्डर पर डटे लाखों किसान इस माँग पर अड़े हुए हैं कि कुछ महीने पहले लागू हुआ नया कृषि क़ानून वापस लिया जाए.

दूसरी तरफ़ सरकार उनसे बातचीत करने की इच्छुक दिखी है लेकिन नए किसान क़ानून को वापस लेने या पूरी तरह से बदलने की बात किए बिना. इस बीच तीन बड़े सवाल हैं जिनके जवाब शायद आप भी जानना चाहेंगे.

किसान चाहते क्या रहे हैं और नए कृषि क़ानून में उन्हें मिला क्या है?

एक नज़र दौड़ाइए उन तीन नए क़ानूनों पर जिनकी वजह से विवाद उठा है.

द फ़ार्मर्स प्रोड्यूस ट्रेड एंड कॉमर्स (प्रमोशन एंड फ़ैसिलिटेशन), 2020 क़ानून के मुताबिक़, किसान अपनी उपज एपीएमसी यानी एग्रीक्लचर प्रोड्यूस मार्केट कमिटी की ओर से अधिसूचित मण्डियों से बाहर बिना दूसरे राज्यों का टैक्स दिए बेच सकते हैं.

दूसरा क़ानून है - फ़ार्मर्स (एम्पावरमेंट एंड प्रोटेक्शन) एग्रीमेंट ऑन प्राइस एश्योरेंस एंड फ़ार्म सर्विस क़ानून, 2020. इसके अनुसार, किसान अनुबंध वाली खेती कर सकते हैं और सीधे उसकी मार्केटिंग कर सकते हैं.

तीसरा क़ानून है - इसेंशियल कमोडिटीज़ (एमेंडमेंट) क़ानून, 2020. इसमें उत्पादन, स्टोरेज के अलावा अनाज, दाल, खाने का तेल, प्याज की बिक्री को असाधारण परिस्थितियों को छोड़कर नियंत्रण-मुक्त कर दिया गया है.

सरकार का तर्क है कि नये क़ानून से किसानों को ज़्यादा विकल्प मिलेंगे और क़ीमत को लेकर भी अच्छी प्रतिस्पर्धा होगी. इसके साथ ही कृषि बाज़ार, प्रोसेसिंग और आधारभूत संरचना में निजी निवेश को बढ़ावा मिलेगा.

जबकि किसानों को लगता है कि नए क़ानून से उनकी मौजूदा सुरक्षा भी छिन जाएगी.

भारत सरकार की नैशनल कमीशन ऑफ़ फ़ारमर्स के पूर्व सदस्य वाईएस नंदा को लगता है कि कृषि के क्षेत्र में, "प्रयोग ज़्यादा और असल काम कम हुए हैं".

उन्होंने कहा, "80's और 90's में ग्रोथ अच्छी थी. छठे फ़ाइव-इयर प्लान में कृषि की ग्रोथ 5.7 % थी और जीडीपी ग्रोथ 5.3% थी. ऐसा दोबारा नहीं हुआ कभी. और 90's के बाद तो ग्रोथ कम हो गई है. रुरल इंफ़्रास्ट्रकचर में इन्वेस्टमेंट कम हो गई है जिसकी वजह से कृषि की ग्रोथ कम हो गई है".

यानी ये कहा जा सकता है कि 1960 के दशक में शुरू हुई हरित क्रांति का फल अगर अगले दो दशकों तक दिखा तो 90 के दशक में कृषि सेक्टर की रफ़्तार धीमी हुई.

मौजूदा व्यवस्था में किसानों का कहना है कि इनमें से बहुत अभी लागू नहीं हुई है और उन्हें ज़्यादा मंडियाँ और कॉंट्रैक्ट फ़ार्मिंग में सुरक्षा देने वाले क़ानून चाहिए.

जबकि सरकार कहती है कि ख़राब मार्केटिंग के चलते किसान को अच्छा दाम नहीं मिल रहा है, इसलिए निजी कम्पनियों और स्टोरेज वेयरहाउज़ेज़ को लाने से वैल्यू चेन में किसानों का क़द बढ़ेगा.

मेखला कृष्णमूर्ति का मानना है कि, "पिछले छह महीने से जब से ये किसान क़ानून लाया गया है,पहले ऑर्डिनेन्स के रूप में और अब ये ऐक्ट बने हैं, छह महीने से हम सुन रहे हैं कि भारतीय किसान अब आज़ाद हो गए हैं, अब वो बाज़ार में, मंडी में स्वतंत्र हैं".

उन्होंने आगे बताया, "जब मैं 12 साल पहले मध्य प्रदेश की मंडियों में शोध कर रही थी, जब भी मैं मंडी जाती थी किसान समझाते थे कि देखिए पूरी अर्थव्यवस्था में किसान एक ऐसे उत्पादक हैं जो अपने माल के भाव कभी तय नहीं कर पाता, वो भाव स्वीकार करता है दूसरों का तय किया हुआ".

इस बीच जहाँ कम से कम उत्तर भारत के किसान सरकारी मंडीयों और बीच में मौजूद आढ़तियों के बने रहने के पक्ष में हैं, नया क़ानून इस सिस्टम के आगे की बात कर रहा है.

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