Hindi, asked by gplwaske, 2 months ago


प्रश्न- 'तोड़ती पत्थर' कविता के वस्तु-विधान का वर्णन कीजिए ​

Answers

Answered by pv93125
4

Answer:

कवि कहते है, मैने एक महिला को पत्थर तोड़ते हुए देखा। कवि हैदराबाद के किसी रास्ते पर उस महिला को पत्थर तोड़ते हुए देखते है। वह एक ऐसे पेड़ के नीचे बैठी है, जहा छाया नहीं मिल रही आस पास भी कोई छायादार जगह नहीं हैं। इस प्रकार कवि शोषित समाज की विषमता का वर्णन करते है। ओर बताते है की मजदूर वर्ग अपना काम पूरी लग्न के साथ करते है। कवी महिला के रूप का वर्णन करते हुए कहते है, की महिला का रंग सावला है, परिपक्व अर्थात् युवा काल में आ गई है। आंखो में चमक, और मन अपने कार्य में लगा रखा हैं। और पत्थर तोड़ रही हैं। सूरज अपने चरम पर जा पहुंचा है, गर्मी बढ़ती जा रही है। कवि बताते है दिन में सबसे कष्टदायक समय यही हैं। धरती - आसमान सब इस भीषण गर्मी से झुलस रहे है। अचानक महिला की नज़र उस भवन की ओर जाती हैं जहां कवि है, उसे देख कर ऐसा प्रतीत हो रहा की उस सितार से मेरा हो, ओर उसकी ध्वनि कवि कनो को भी सुनाई दे रही है परन्तु महिला रो नहीं रही है। कवि बताना चाहते हैं की महिला अपनी गरीबी के कारण दुखी है परन्तु उसने अभी तक अपनी हिम्मत नहीं हारी है। अचानक महिला को अपने कार्य का स्मरण होता है और एकाएक एक फिर से अपने कार्य में लग जाती है। ओर केहरी है, में तोड़ती पत्थर।

Answered by anirudhayadav393
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Concept Introduction: कविताएँ लेखक की भावनाओं को व्यक्त करती हैं।

Explanation:

We have been Given: 'तोड़ती पत्थर' कविता

We have to Find: 'तोड़ती पत्थर' कविता के वस्तु-विधान का वर्णन कीजिए

'वह तोड़ती पत्थर' कविता सुप्रसिद्ध कवि सूर्यकान्त त्रिपाठी 'निराला' द्वारा रचित। मजदूर वर्ग की दयनीय दशा को उभारने वाली एक मार्मिक कविता है। कवि कहता है कि उसने इलाहाबाद के मार्ग पर एक मजदूरनी को पत्थर तोड़ते देखा। वह जिस पेड़ के नीचे बैठकर पत्थर तोड़ रही थी वह छायादार भी नहीं था, फिर भी विवशतावश वह वहीं बैठे पत्थर तोड़ रही थी। उसका शरीर श्यामवर्ण का था, तथा वह पूर्णत: युवा थी। उसके हाथ में एक भारी हथौड़ा था, जिससे वह बार-बार पत्थर पर प्रहार कर रही थी। उसके सामने ही सघन वृक्षों की पंक्ति, अट्टालिकाएं, भवन तथा परकोटे वाली कोठियाँ विद्यमान थीं।

कवि कहता है कि जैसे-जैसे धूप चढ़ती जा रही थी, उसी रूप में गरमी बढ़ती जा रही थी। समूचे शरीर को झुलसा देने वाली लू चल रही थी। ऐसे में जब उसने मुझे उसकी ओर देखते हुए देखा तो एक बार तो उस बनते हुए भवन को उसने देखा फिर यह लक्षित करके कि मैं अकेला ही था. उसने अपने तार-तार होकर फटे कपड़ों की ओर देखा। ऐसा लगा जैसे अपनी उस स्थिति द्वारा ही उसने मुझको अपनी दीन अवस्था की पूरी करुण गाथा उसी तरह सुना दी जिस प्रकार कोई सितार पर सहज भाव से उंगलियाँ चलाकर अनोखी झंकार उत्पन्न कर देता है। एक क्षण तक कवि की ओर देखने के पश्चात् वह श्रमिक युवती काँप उठी उसके मस्तक से पसीने के कण छलक तत्पश्चात् वह फिर अपने कर्म पत्थर तोड़ने में लग गई।

Final Answer: 'वह तोड़ती पत्थर' कविता सुप्रसिद्ध कवि सूर्यकान्त त्रिपाठी 'निराला' द्वारा रचित। मजदूर वर्ग की दयनीय दशा को उभारने वाली एक मार्मिक कविता है। कवि कहता है कि उसने इलाहाबाद के मार्ग पर एक मजदूरनी को पत्थर तोड़ते देखा। वह जिस पेड़ के नीचे बैठकर पत्थर तोड़ रही थी वह छायादार भी नहीं था, फिर भी विवशतावश वह वहीं बैठे पत्थर तोड़ रही थी। उसका शरीर श्यामवर्ण का था, तथा वह पूर्णत: युवा थी। उसके हाथ में एक भारी हथौड़ा था, जिससे वह बार-बार पत्थर पर प्रहार कर रही थी। उसके सामने ही सघन वृक्षों की पंक्ति, अट्टालिकाएं, भवन तथा परकोटे वाली कोठियाँ विद्यमान थीं।

कवि कहता है कि जैसे-जैसे धूप चढ़ती जा रही थी, उसी रूप में गरमी बढ़ती जा रही थी। समूचे शरीर को झुलसा देने वाली लू चल रही थी। ऐसे में जब उसने मुझे उसकी ओर देखते हुए देखा तो एक बार तो उस बनते हुए भवन को उसने देखा फिर यह लक्षित करके कि मैं अकेला ही था. उसने अपने तार-तार होकर फटे कपड़ों की ओर देखा। ऐसा लगा जैसे अपनी उस स्थिति द्वारा ही उसने मुझको अपनी दीन अवस्था की पूरी करुण गाथा उसी तरह सुना दी जिस प्रकार कोई सितार पर सहज भाव से उंगलियाँ चलाकर अनोखी झंकार उत्पन्न कर देता है। एक क्षण तक कवि की ओर देखने के पश्चात् वह श्रमिक युवती काँप उठी उसके मस्तक से पसीने के कण छलक तत्पश्चात् वह फिर अपने कर्म पत्थर तोड़ने में लग गई।

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