प्रत्येक रस के दो - दो उदाहरण लिखो
Answers
जब स्थाई भाव का संयोग विभाव , अनुभाव और संचारी भावों से होता है तो वह रस रूप में व्यक्त हो जाते हैं। रति , हास्य , शोक , क्रोध , उत्साह , भय , जुगुप्सा और विस्मय।
Explanation:
रस काव्य का मूल आधार ‘ प्राणतत्व ‘ अथवा ‘ आत्मा ‘ है रस का संबंध ‘ सृ ‘ धातु से माना गया है। जिसका अर्थ है जो बहता है , अर्थात जो भाव रूप में हृदय में बहता है उसे को रस कहते हैं।
एक अन्य मान्यता के अनुसार रस शब्द ‘ रस् ‘ धातु और ‘ अच् ‘ प्रत्यय के योग से बना है। जिसका अर्थ है – जो वहे अथवा जो आश्वादित किया जा सकता है।
रस की परिभाषा
इसका उत्तर रसवादी आचार्यों ने अपनी अपनी प्रतिभा के अनुरूप दिया है। रस शब्द अनेक संदर्भों में प्रयुक्त होता है तथा प्रत्येक संदर्व में इसका अर्थ अलग – अलग होता है।
उदाहरण के लिए
पदार्थ की दृष्टि से रस का प्रयोग षडरस के रूप में तो , आयुर्वेद में शस्त्र आदि धातु के अर्थ में , भक्ति में ब्रह्मानंद के लिए तथा साहित्य के क्षेत्र में काव्य स्वाद या काव्य आनंद के लिए रस का प्रयोग होता है।
रस के भेद
इसके मुख्यतः ग्यारह भेद हैं :- १.वीभत्स, २.शृंगार, ३.करुण, ४.हास्य, ५.वीर, ६.रौद्र, ७.भयानक, ८.अद्भुत, ९.शांत, १०.वात्सल्य, और ११.भक्ति
रस को समझने के लिए कुछ महत्वपूर्ण बिंदु
काव्य पढ़ने – सुनने अथवा देखने से श्रोता पाठक या दर्शक एक ऐसी भवभूति पर पहुंच जाते हैं जहां चारों तरफ केवल शुद्ध आनंदमई चेतना का ही साम्राज्य रहता है।
इस भावभूमि को प्राप्त कर लेने की अवस्था को ही रस कहा जाता है।
अतः रस मूलतः आलोकिक स्थिति है, यह केवल काव्य की आत्मा ही नहीं बल्कि यह काव्य का जीवन भी है इसकी अनुभूति से सहृदय पाठक का हृदय आनंद से परिपूर्ण हो जाता है।
यह भाव जागृत करने के लिए उनके अनुभव या सशक्त माध्यम माना जाता है।
आचार्य भरतमुनि ने सर्वप्रथम नाट्यशास्त्र रचना के अंतर्गत रस का सैद्धांतिक विश्लेषण करते हुए रस निष्पत्ति पर अपने विचार प्रस्तुत किए
उनके अनुसार
” विभावअनुभाव संचार संयोगाद्रस निष्पत्ति “
रस निष्पत्ति अर्थात विभाव अनुभाव और संचारी भाव के सहयोग से ही रस की निष्पत्ति होती है , किंतु साथ ही वे स्पष्ट करते हैं कि स्थाई भाव ही विभाव , अनुभाव और संचारी भाव के सहयोग से स्वरूप को ग्रहण करते हैं।
इस प्रकार रस की अवधारणा को पूर्णता प्रदान करने में उनके चार अंगों स्थाई भाव , विभाव , अनुभाव और संचारी भाव का महत्वपूर्ण योगदान होता है।
१. स्थाई भाव
स्थाई भाव रस का पहला एवं सर्वप्रमुख अंग है। भाव शब्द की उत्पत्ति ‘ भ् ‘ धातु से हुई है। जिसका अर्थ है संपन्न होना या विद्यमान होना।
अतः जो भाव मन में सदा अभिज्ञान ज्ञात रूप में विद्यमान रहता है उसे स्थाई या स्थिर भाव कहते हैं। जब स्थाई भाव का संयोग विभाव , अनुभाव और संचारी भावों से होता है तो वह रस रूप में व्यक्त हो जाते हैं।
सामान्यतः स्थाई भावों की संख्या अधिक हो सकती है किंतु
आचार्य भरतमुनि ने स्थाई भाव आठ ही माने हैं –
रति , हास्य , शोक , क्रोध , उत्साह , भय , जुगुप्सा और विस्मय।
वर्तमान समय में इसकी संख्या 9 कर दी गई है तथा निर्वेद नामक स्थाई भाव की परिकल्पना की गई है। आगे चलकर माधुर्य चित्रण के कारण ‘ वात्सल्य ‘ नामक स्थाई भाव की भी परिकल्पना की गई है। इस प्रकार रस के अंतर्गत 10 स्थाई भाव का मूल रूप में विश्लेषण किया जाता है इसी आधार पर 10 रसों का उल्लेख किया जाता है।
२. विभाव
रस का दूसरा अनिवार्य एवं महत्वपूर्ण अंग है। भावों का विभाव करने वाले अथवा उन्हें आस्वाद योग्य बनाने वाले कारण विभाव कहलाते हैं। विभाव कारण हेतु निर्मित आदि से सभी पर्यायवाची शब्द हैं।
विभाव का मूल कार्य सामाजिक हृदय में विद्यमान भावों की महत्वपूर्ण भूमिका मानी गई है।
विभाव के अंग – १ आलंबन विभाव और २ उद्दीपन विभाव
आलंबन विभाव
आलंबन का अर्थ है आधार या आश्रय अर्थात जिसका अवलंब का आधार लेकर स्थाई भावों की जागृति होती है उन्हें आलंबन कहते हैं। सरल शब्दों में कहा जा सकता है कि जो सोए हुए मनोभावों को जागृत करते हैं वह आलंबन विभाव कहलाते हैं। |