प्रत्येक युग केमहान ववचारकों नेिन-संग्रह की प्रवृवत्त की वनदा की है। िन को इसवलए हेय दृवि सेदेखा जाता हैढक गवत, आलस्य तथा अन्य अवगुर् इसका अनुसरर् करतेहैं। वनस्सन्देह हम सामान्यतः यह देखतेहैंढक मनुष्य वजतना ही िनी होता हैउतना ही पुण्य अथवा श्रेष्ठ कायों सेदूर रहता है। ढकन्तुसूक्ष्म वनरीक्षर् करनेपर हम पाएंगे ढक िन स्वयं मेंदोषपूर्तनहीं है। वस्तुतः िन केअनुवचत प्रयोग की ही वनदा की जानी चावहए। हमारा कत्ततव्य हैढक हम जन-कल्यार् केवलए सम्पवत्त-दान करकेसमाज केप्रवत सत्यवनष्ठ रहे। यढद हम अपनेदेश केपूर्तववकास केइच्छु क हैंतो के वल वनजी लाभों को दृवि मेंनहीं रखा जाना चावहए। प्रश्न 1. िन-संग्रह की प्रवृवत्त वनन्दनीय हैक्योंढक अविक िन ? प्रश्न 2. िन-संचय दोष न होकर दोष हैिन का ? प्रश्न 3. िन का उवचत उपयोग करनेकेवलए हमेंचावहए ? प्रश्न 4. श्रेष्ठ कायाांसेव्यवि दूर होनेलगता है, जब वह ? प्रश्न 5. इस अवतरर् का सवातविक उप
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प्रत्येक युग केमहान ववचारकों नेिन-संग्रह की प्रवृवत्त की वनदा की है। िन को इसवलए हेय दृवि सेदेखा जाता हैढक गवत, आलस्य तथा अन्य अवगुर् इसका अनुसरर् करतेहैं। वनस्सन्देह हम सामान्यतः यह देखतेहैंढक मनुष्य वजतना ही िनी होता हैउतना ही पुण्य अथवा श्रेष्ठ कायों सेदूर रहता है।
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