प्रत्यक्षेगुरवः स्तुत्याः परोक्षे मित्र-बान्धवाः।
कर्मान्तेदास भृत्याश्च पुत्रा: नैव च नैव च।
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प्रत्यक्षेगुरवः स्तुत्याः परोक्षे मित्र-बान्धवाः।
कर्मान्तेदास भृत्याश्च पुत्रा: नैव च नैव च।
इस श्लोक का अर्थ है : हमारे गुरुजन हमेशा सामने प्रशंसा के योग्य होते है , उनकी सामने प्रशंसा करनी चाहिए | मित्र , अपने प्रिय परिजनों की प्रशंसा उनकी अनुपस्थिति में करनी चाहिए | सेवकों और नौकरों की प्रशंसा कर्म की समाप्ति पर करनी चाहिए | पुत्र की प्रशंसा उसके सामने कभी नहीं करनी चाहिए , क्योंकि प्रशंसा के कारण पुत्र में अभिमान आ जाता है और वह अभिमान इसके लक्ष्य को भटका देता है | वह अपने उन्नति के रास्ते के विरुद हो जाता है |
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