प्रथम विश्व युद्ध के प्रभाव
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प्रथम विश्व युद्ध का तात्कालिक कारण
ऑस्ट्रिया के सिंहासन के उत्तराधिकारी आर्चड्युक फर्डिनेंड(Archduke Ferdinand) और उनकी पत्नी का वध इस युद्ध का तात्कालिक कारण था। यह घटना 28 जून 1914, को सेराजेवो ( seraajevo )में हुई थी। एक माह के बाद ऑस्ट्रिया ने सर्बिया के विरुद्ध युद्ध घोषित किया।
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राजनीतिक प्रभाव
युद्ध की समाप्ति के बाद भारत में पंजाबी सैनिकों की वापसी ने उस प्रांत में औपनिवेशिक शासन के खिलाफ राजनीतिक गतिविधियों को भी उत्तेजित किया जिसने आगे चलकर व्यापक विरोध प्रदर्शनों का रूप ले लिया। उल्लेखनीय है कि युद्ध के बाद पंजाब में राष्ट्रवाद का बड़े पैमाने पर प्रसार हेतु सैनिकों का एक बड़ा भाग सक्रिय हो गया।
जब 1919 का मोंटग्यू-चेम्सफोर्ड सुधार 'गृह शासन की अपेक्षाओं को पूरा करने में असफल रहा तो भारत में राष्ट्रवाद और सामूहिक नागरिक अवज्ञा का उदय हुआ।
युद्ध हेतु सैनिकों की ज़बरन भर्ती से उत्पन्न आक्रोश ने राष्ट्रवाद को बढ़ावा देने की पृष्ठभूमि तैयार की।
सामाजिक प्रभाव
युद्ध के तमाम नकारात्मक प्रभावों के वाबजूद वर्ष 1911 और 1921 के बीच, भर्ती हुए सैनिक समुदायों में साक्षरता दर में उल्लेखनीय वृद्धि हुई। युद्ध के मैदान में पुरुषों की उपयोगिता की धारणा का उन दिनों महत्त्व होने के कारण सैनिकों ने अपने विदेशी अभियानों हेतु पढ़ना-लिखना सीखा।
युद्ध में भाग लेने वाले विशेष समुदायों का सम्मान समाज में बढ़ गया।
इसके अतिरिक्त गैर-लड़ाकों की भी बड़ी संख्या में भारत से भर्ती की गई- जैसे कि नर्स, डॉक्टर इत्यादि। अतः इस युद्ध के दौरान महिलाओं के कार्य-क्षेत्र का भी विस्तार हुआ और उन्हें सामाजिक महत्त्व भी प्राप्त हुआ।
हालाँकि, भारतीय समाज को ऐसी परिस्थितियों में आवश्यक सेवाओं से वंचित कर दिया गया जहाँ पहले से ही ऐसी सेवाएँ/कौशल (नर्स, डॉक्टर) दुर्लभ थे।
आर्थिक प्रभाव
ब्रिटेन में भारतीय सामानों की मांग में तेज़ी से वृद्धि हुई क्योंकि ब्रिटेन में उत्पादन क्षमताओं पर युद्ध के कारण बुरा प्रभाव पड़ा था।
हालाँकि, युद्ध के कारण शिपिंग लेन में व्यवधान उत्पन्न हुआ लेकिन इसका यह अर्थ था कि भारतीय उद्योगों को ब्रिटेन और जर्मनी से पहले आयात किये गए इनपुट की कमी की वज़ह से असुविधा का सामना करना पड़ा था। अतः अतिरिक्त मांग के साथ-साथ आपूर्ति की बाधाएँ भी मौजूद थीं।
युद्ध का एक और परिणाम मुद्रास्फीति के रूप में सामने आया। वर्ष 1914 के बाद छह वर्षों में औद्योगिक कीमतें लगभग दोगुनी हो गईं और बढ़ती कीमतों में तेज़ी ने भारतीय उद्योगों को लाभ पहुँचाया।
कृषि की कीमतें औद्योगिक कीमतों की तुलना में धीमी गति से बढीं। अगले कुछ दशकों में और विशेष रूप से महामंदी (Great Depression) के दौरान वैश्विक वस्तुओं की कीमतों में गिरावट की प्रवृत्ति जारी रही।
खाद्य आपूर्ति, विशेष रूप से अनाज की मांग में वृद्धि से खाद्य मुद्रास्फीति में भी भारी वृद्धि हुई। यूरोपीय बाज़ार के नुकसान के कारण जूट जैसे नकदी फसलों के निर्यात को भी भारी नुकसान पहुँचा।
उल्लेखनीय है कि इस बीच सैनिकों की मांगों में वृद्धि के चलते भारत में जूट उत्पादन में संलग्न मजदूरों की कमी हुई और बंगाल के जूट मिलों के उत्पादन को भी हानि पहुँची जिसके लिये मुआवज़ा दिया गया परिणामतः आय असमानता में वृद्धि हुई।
वहीं, कपास जैसे घरेलू विनिर्माण क्षेत्रों में ब्रिटिश उत्पादों में आई गिरावट से लाभ भी हुआ जो युद्ध पूर्व बाज़ार पर हावी था।
ब्रिटेन में ब्रिटिश निवेश को पुनः शुरू किया गया, जिससे भारतीय पूंजी के लिये अवसर सृजित हुए।