प्रथम युद्ध ने भारत में उद्योगों के विकास के लिए अनुकूल परिस्तिथि पैदा की
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प्रथम विश्वयुद्ध मित्र/संयुक्त राष्ट्र और केंद्रीय शक्तियों के बीच लड़ा गया था।
जहाँ सहयोगी शक्तियों के मुख्य सदस्य फ्राँस, रूस और ब्रिटेन थे (1917 के बाद से संयुक्त राज्य अमेरिका ने भी सहयोगियों की तरफ से लड़ाई लड़ी।), वहीं केंद्रीय शक्तियों के मुख्य सदस्य जर्मनी, ऑस्ट्रिया-हंगरी, तुर्क साम्राज्य और बुल्गारिया थे।
प्रथम विश्वयुद्ध के लिये कोई एक घटना उत्तरदायी नहीं थी बल्कि इस युद्ध को 1914 तक के वर्षों में घटने वाली विभिन्न घटनाओं और कारणों का परिणाम माना जा सकता है। प्रथम विश्वयुद्ध हेतु ज़िम्मेदार कारणों को दीर्घकालिक और तात्कालिक कारणों में वर्गीकृत किया जा सकता है।
दीर्घकालिक कारण
दीर्घकालिक कारणों में वर्ष 1914 तक के वर्षों में घटने वाली विभिन्न घटनाओं यथा - राष्ट्रीयता की उग्र भावना का विकास, सैनिकवाद और शस्त्रीकरण, साम्राज्यवाद तथा आर्थिक प्रतिद्वंद्विता, गुप्त व कूटनीतिक संधियाँ, साम्राज्यवाद की भावना, समाचार पत्र-पत्रिकाओं का अभाव, अंतर्राष्ट्रीय संस्थाओं का अभाव सामाजिक असंतुलन आदि को शामिल किया जा सकता है।
तात्कालिक कारण
लंबे समय से संपूर्ण यूरोप में अशांति व अव्यवस्था के चिह्न पहले से ही मौजूद थे, तात्कालिक परिस्थिति ने तो केवल आग में घी का काम किया।
दरअसल, 28 जून, 1914 को ऑस्ट्रिया के राज सिंहासन के उत्तराधिकारी आर्क ड्यूक फ्रांसिस फर्डिनेंड की बोस्निया (राजधानी सेराजेवो) में हत्या कर दी गई और इस हत्या का आरोप सर्बिया पर लगाया गया। दोनों के मध्य पहले से ही चल रहे कटु संबंधों के कारण ऑस्ट्रिया को सर्बिया से बदला लेने का अवसर मिल गया।
परिस्थिति को देखते हुए ऑस्ट्रिया ने सर्बिया को कुछ मांगों (दस सूत्री मांग पत्र) को मानने हेतु बाध्य किया, किंतु सर्बिया ने इस मांग पत्र की अनुचित मांगों को अस्वीकार कर दिया। परिणामतः ऑस्ट्रिया ने 28 जुलाई, 1914 को सर्बिया पर आक्रमण कर दिया। इस युद्ध में विभिन्न देश शामिल होते गए और अंततः युद्ध ने विश्वव्यापी रूप ले लिया।
प्रथम विश्वयुद्ध का भारत के लिये महत्त्व
चूँकि इस युद्ध में ब्रिटेन भी शामिल था और उन दिनों भारत पर ब्रिटेन का शासन था अतः इस कारण हमारे सैनिकों को इस युद्ध में शामिल होना पड़ा।
इसके अतिरिक्त उस समय भारतीय राष्ट्रवाद के प्रभुत्व का दौर था, ये राष्ट्रवादी यह मानते थे कि युद्ध में ब्रिटेन को योगदान देने के परिणामस्वरूप अंग्रेजों द्वारा भारतीय निवासियों के प्रति उदारता बरती जाएगी और उन्हें अधिक संवैधानिक अधिकार प्राप्त होंगे।
इस युद्ध के बाद लौटे सैनिकों ने जनता के मनोबल बढ़ाया।
दरअसल, भारत ने लोकतंत्र की प्राप्ति के वादे के तहत इस विश्वयुद्ध में ब्रिटेन का समर्थन किया था लेकिन युद्ध के तुरंत बाद अंग्रेज़ो ने रौलेट एक्ट पारित किया। परिणामस्वरूप भारतीयों में ब्रिटिश हुकूमत के प्रति असंतोष का भाव जागा इससे राष्ट्रीय चेतना का उदय हुआ तथा जल्द ही असहयोग आंदोलन की शुरुआत हुई।
इस युद्ध के बाद यूएसएसआर के गठन के साथ ही भारत में भी साम्यवाद का प्रसार (सीपीआई के गठन) हुआ और परिणामतः स्वतंत्रता संग्राम पर समाजवादी प्रभाव देखने को मिला।