पूस जाड़ थर-थर तन काँपा। सूरज जाइ लंका दिसि चाँपा।। विरह बाढ़ दाउन भा सीऊ। कपि-कॅपि मरौं, लेइ हरि जीऊ।। कंत कहाँ लागौ ओहि हियरे। पंथ अपार, सूझ नहिं नियरे।। सौर सपेती आपैं जूडी। जानहु सेज हिवंचल बूड़ी।। चकई, निहिस बिछुरै, दिन मिला। हौं दिन राति विरह कोकिला ।।
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पूस जाड़ थर-थर तन काँपा। सूरज जाइ लंका दिसि चाँपा।। विरह बाढ़ दाउन भा सीऊ। कपि-कॅपि मरौं, लेइ हरि जीऊ।। कंत कहाँ लागौ ओहि हियरे। पंथ अपार, सूझ नहिं नियरे।। सौर सपेती आपैं जूडी। जानहु सेज हिवंचल बूड़ी।। चकई, निहिस बिछुरै, दिन मिला। हौं दिन राति विरह कोकिला ।।
व्याख्या : यह पंक्तियाँ बारहमासा कविता से ली गई है | यह कविता मलिक मुहम्मद जायसी द्वारा लिखी गई है |
कवि पूस की ठंड में वियोग पीड़ित नागमती के बारे में वर्णन किया है | ठंड के दिनों में शरीरी थर-थर कांपने लगता है | सूरज ऐसा लगता है कि लंका की दिशा की ओर जा रहा है | राजा रत्नसेन लंका की ओर चले गए हैं। विरह वेदना से रानी का बेहद दयनीय अवस्था में आ गयी है | ठंड की कंपकंपी से उनका शरीर हारने लगा है | उन्हें समझ नहीं आ रहा है कि प्रियतम कहाँ गए है | उन्हें ढूंढने का कोई उपाय नहीं मिल रहा है |
रास्ते तो बहुत है , पर भविष्य में कोई रास्ता प्रियतम तक नहीं पहुंच रहा है | ठंड में गर्मी प्रदान करने वाले वस्त्र हिमालय की बर्फ़ में बिस्तर की तरह लग रहे है | कोकिला व चकई भी नियत काल में मिल जाते है।