पोशाक मनुय को वभन ेणय म बाँट देती ह ।पोशाक ह समाज म मनुय का अधकार और उसका दज़ा निचत करती ह। वह हमारे लए अनेक बंद दरवाज़े खोल देती है परतु वह पोशाक कभी-कभी हमारे लए अड़चन एवं बधन बन जाती है। द वषय पर दो वयाथय के परपर वातालाप को 50 से 60 शद म संवाद प म लखए।
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लेखक के अनुसार मनुष्यों का पहनावा ही समाज में मनुष्य का अधिकार और उसका दर्ज़ा निश्चित करता है। परन्तु लेखक कहता है कि समाज में कभी ऐसी भी परिस्थिति आ जाती है कि हम समाज के ऊँचे वर्गों के लोग छोटे वर्गों की भावनाओं को समझना चाहते हैं परन्तु उस समय समाज में उन ऊँचे वर्ग के लोगों का पहनावा ही उनकी इस भावना में बाधा बन जाती है।
लेखक अपने द्वारा अनुभव किये गए एक दृश्य का वर्णन करता हुआ कहता है कि एक दिन लेखक ने बाज़ार में, फुटपाथ पर कुछ खरबूजों को टोकरी में और कुछ को ज़मीन पर रखे हुए देखा। खरबूजों के नज़दीक ही एक ढलती उम्र की औरत बैठी रो रही थी।
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