पाश्र्वीय जल प्रवाह के मार्गों का चित्र बनाइए।
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जल ‘जीवन का अमृत’ है। हमें वर्तमान व भावी पीढ़ियों के लिये जल संरक्षण की आवश्यकता है। इस पाठ के माध्यम से आप जल संरक्षण की आवश्यकता तथा जल संग्रहण की विभिन्न विधियों के बारे में जानकारी प्राप्त कर सकेंगे।
उद्देश्य
इस पाठ के अध्ययन के समापन के पश्चात आपः
i. जल संरक्षण की आवश्यकता व महत्ता का वर्णन कर पाएँगे;
ii. जल संचयन (संग्रहण) की आवश्यकता का वर्णन कर पाएँगे;
iii. पारंपरिक जल संचयन (संग्रहण) की विभिन्न विधियों का विवरण दे पाएँगे तथा उनका वर्गीकरण कर सकेंगे;
iv. आधुनिक जल संचयन के विभिन्न तरीकों का विवरण व वर्गीकरण कर पाएँगे।
30.1 जल संरक्षण की आवश्यकता
जल, जीवन के लिये सबसे अहम प्राकृतिक संसाधन है। आगामी दशकों में यह विश्व के कई क्षेत्रों में एक गंभीर अभाव की स्थिति में चला जायेगा। यद्यपि जल पृथ्वी में सबसे प्रचुर मात्रा में पाया जाने वाला पदार्थ है, फिर भी यह समान रूप से वितरित नहीं है। अक्षांश में परिवर्तन, वर्षा के तरीके (पैटर्न), स्थलाकृति इत्यादि इसकी उपलब्धता को प्रभावित करते हैं।
जल एक ऐसी संपदा है जिसका किसी तकनीकी प्रक्रिया के माध्यम से, जब जी चाहे, तब उत्पादन या संचयन नहीं हो सकता। मूल रूप से, पृथ्वी पर कुल मिलाकर, अलवण जल और समुद्री जल की मात्रा स्थायी रूप से तय है।
जो अलवण जल हमारे जीवन के लिये इतना जरूरी है, उसकी मात्रा पृथ्वी पर पाए जाने वाले पानी की कुल मात्रा की केवल 2.7% है। इस दो प्रतिशत का लगभग सारा भाग बर्फ की टोपियों, हिमनदियों (ग्लेशियरों) और बादलों के रूप में पाया जाता है। अलवण जल का शेष बचा हुआ थोड़ा सा भाग झीलों और भूमिगत स्रोतों में सदियों से एकत्रित है। आश्चर्य की बात तो यह है कि समुद्रों में पाया जाने वाला खारा पानी, जो कि इस पृथ्वी पर अलवण जल का परम स्रोत है। वर्षा का लगभग 85% जल प्रत्यक्ष रूप से समुद्र में गिरता है और भूमि में कभी नहीं पहुँच पाता है। वर्षा का जो शेष भाग भूमि पर गिरता है, वह झीलों और कुओं को भर देता है और नदियों के प्रवाह को बढ़ाता रहता है। समुद्री जल के प्रत्येक 50,000 ग्राम के सामने सिर्फ एक ग्राम अलवण जल मानव जाति को उपलब्ध है। इस कारण जल एक दुर्लभ और अनमोल संसाधन के रूप में सामने आता है।
भारत में स्थिति अभी भी अत्यंत खराब है। यद्यपि भारत विश्व के सबसे आर्द्र देशों में से एक है, इसमें जल का वितरण समय और स्थान के आधार पर बहुत असमान है। हमारे देश में औसतन 1150 मिमी वार्षिक वर्षा होती है, जो यह संसार में किसी भी समान आकार के देश के मुकाबले में सबसे अधिक है। परन्तु इस बड़ी मात्रा की वर्षा का वितरण असमान है। उदाहरण के लिये एक वर्ष में औसतन वर्षा के दिनों की संख्या केवल 40 है। अतः वर्ष का शेष लम्बा भाग सूखा रहता है। इसके अलावा, जहाँ उत्तर-पूर्व के कुछ क्षेत्रों में वर्षा तेरह मीटर तक होती है, वहीं राजस्थान के कुछ क्षेत्रों में 20 से.मी. से अधिक वर्षा नहीं होती। वर्षा के इस असमान वितरण के कारण, देश के कई भागों में पानी का भीषण अभाव है।