पाती प्रेम की, विरला बांचै कोई/वेद पुरान पुस्तक पढ़े, प्रेम बिना क्या होई। bhavarthy
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भारतीय अध्यात्म, इन्द्रियों के माध्यम से प्राप्त ज्ञान-अनुभव नहीं है। यह सीधा, इन्द्रियातीत अनुभव है, जिसे स्वानुभूति कह सकते हैं। इसमें ज्ञान प्राप्त करने की सारी प्रक्रिया निष्काम-अनप्रयुक्त रह जाती है। परम तत्तव की तथा परमज्ञान की इस प्रक्रिया में वस्तुपरकता का अतिक्रमण होता है। भारतीय अध्यात्म अनुभव पराऐन्द्रिक धरातल पर घटित होता है, जबकि पश्चिमोन्मुख आधुनिक सोच, प्रकृति-विज्ञान या मानव-ज्ञानार्जित अनुभव प्रणालियों के धरातल से प्राय: आगे नहीं बढ़ता। भारतीय सन्तों ने अपनी 'अनुभव वाणी' को ऐन्द्रिक अनुभवों के आधार पर अर्जित नहीं किया अपितु पराऐन्द्रिकता के धरातल पर स्वानुभूति के रूप में उपलब्ध कियाहै।
कुछ आधुनिक चिन्तकों-विद्वानों का मानना है कि चरम सत्य की प्राप्ति, जो कि बुध्दि की पहुँच से बाहर है, यह अतीत की उस समय की अवधारणा है, जब बौध्दिक विकास की वर्तमान जैसी, विकसित वैज्ञानिक तर्कनायुक्त सोच उपलब्ध नहीं थी। किन्तु वे इस तथ्य को भूल जाते हैं कि वैज्ञानिक सोच की, भौतिक, वैचारिक सोच की बुलन्दियों, भारतीय चिन्तन-दर्शन पहले ही, पिछले गये युगों में पार कर आया था। और परा-लोक की, चिन्तन के सर्वोच्च शिखरों की मानवीय क्षमताओं की ध्वजाएँ वैदिक युग में ही फहरा दी गयी थीं। जहाँ ओम् और गायत्राी के जाप की सिध्दियाँ ब्रह्माण्डीय ज्ञान, खगोलीय गणनाओं और देशकाल की संवेदनीय चरम उपलब्धियों के चिद्द स्थापित हैं, वहाँ तक का सारा विज्ञान वर्तमान के लिए आधार-प्रस्थान-उड़ान का मंच बना है। साथ ही भव-भाव- भावना- सम्भावना का महासूत्रा आज भी दिशासूचक की भाँति मार्ग दिखा रहा है। समूचा जल तत्तव, जिस अनुपात में धरती में विद्यमान है, उसी अनुपात में मनुष्य की देह में भी है, जिसकी केन्द्रीय धुरी मनुष्य का हृदय-स्थल है। इसी स्थल पर धमक होने पर भव-से भाव जगते हैं। रस-सिध्दान्त भी और अनुभव जगत् भी इसी से सम्बध्द है। अत: सन्तों की वाणी इसी अनुभव का सुफल है। इसी से भारतीय एवं पाश्चात्य काव्य में मूल अन्तर भी है-भारतीय काव्य हृदयोदभूत है-भावानुप्रेरित है और पाश्चात्य काव्य बौध्दिकता-वैचारिकता प्रसूत है।
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his is the answer of the question