पिता पूत्र का प्रेम काहानी
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ये जूते कितने के हैं?'
'साहब, आठ सौ पचास रुपए के।'
दुकानदार से भाव सुनकर धीरज बाबू ने अपने बेटे को धीरे से समझाया 'पुनीत! मैं तुम्हें दूसरी दुकान लिए चलता हूं... ये जूते बहुत महंगे हैं।' दोनों उस दुकान से बाहर निकलने लगे।
'अरविंद के पिताजी और मेरे पिताजी एक ही पद पर हैं लेकिन दोनों में कितना अंतर है, उसके पिताजी उसकी हर मांग पूरी करते हैं, उसकी हर चीज कितनी अच्छी होती है और मेरे पिताजी को खरीदते समय कितना सोचते हैं?'
अपने मनपसंद जूतों को न खरीद पाने के कारण पुनीत मन ही मन झल्ला रहा था और अपने पिताजी की कंजूसी पर उसे क्रोध भी आ रहा था।
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