पेड़ की आत्मकथा in hindi for essay
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मैं पूरी तरह घायल हूँ ,तो जाहिर सी बात है कि मुझे अपने प्रतिक्रिया व्यक्त करने में तखलीफ हो रही है।खैर छोड़िये इन बातों को बताने से फायदा तो न के बराबर होना है।ओह !! माफ़ कीजियेगा मैं अपना परिचय देना भूल गया ।मैं पीपल का पेड़ हूँ । हाँ , मैं भी आप की तरह जीवित प्राणी हूँ, फर्क तो केवल इतना है कि मैं अभिव्यक्ति बोल कर व्यक्त नही कर सकता । मुझे भी जीने के लिए भोजन की आवश्यकता होती है।
वैसे मेरी उम्र करीब 34 वर्ष है, हालाकि आपको पता होगा हमारी जाती के पेड़ मोटे, और लंबे आयु वाले होते हैं। पर मुझे ऐसा नही लग रहा है कि मैं हाफ सेंचुरी भी पार कर पाऊँ।
आज से 34 वर्ष पहले मुझे बीज से पौधा का रूप देने वाले 'पंडित रामप्रसाद 'जी का मैं शुक्रगुज़ार हूँ । वे मानव जाति के तोहफे थे। मेरी देखभाल करना तो मानो उनकी दिनचर्या ही थी । मेरे ऊपर प्यार से पानी उड़ेलना, माटी को खुरपी से मेरे उपयुक्त बनाना ताकि मेरी जड़े मजबूत हो,ये सारी चीजें वो मेरे लिए किया करते थे ।मैंने इंसान के रूप में भगमान को देखा है ,जो की रामु काका ( रामप्रसादजी)थे । उनकी दो बेटियां थी, काफी चंचल और नटखट , मेरे डालियों पर उछलना, कूदना , बैठना , झुलना उफ़!!! मुझे तो सोने ही नही देती थी । लेकिन बहुत प्यारी थी । मुझे उनके साथ एक गजब का सुकून मिलता था ।एहसास होता था कि मैं भी उनके परिवार का एक सदस्य हूँ । बड़ पूजा के दिन उनकी पत्नी मुझे कोमल दागो से लपेटती थी और चन्दन को लेपति थी । मेरे चारों ओर परिक्रमा करती थी । मुझे तो उस दिन बहुत मज़ा आता था । क्योंकि मुझे एहसास होता था कि मेरा भी कुछ मह्त्व है वरना मैंने तो केवल अपने दोस्तों को खोते देखा है। अपने परिवार को तो मैंने कभी नही देखा लेकिन मुझे एक परिवार मिला रामु काका के संग । वैसे मैंने काका से अपने बच्चो को समझाते हुए सुना है कि उन्हें हमारी सेवा इसिलए करनी चाहिए क्योंकि हमारे बगैर वे सांस नही ले सकते । अगर ये सच है तो हमें सभी को अपना परिवार समझना चाहिए न । लेकिन ये क्या ? वे तो हमारे पिछे परे हैं हमें काटकर अपनी जीवन को सुलभ बनाने की बात कहाँ तक सही है ये तो भगवान् ही जाने । लेकिन इतना तो जान पड़ता है कि वे भी अंत्ततः लुप्त के कगार पर खरे हो जायेंगे ।
इतना तो मुझे पता है कि समय बहुत बलवान है , समय का चक्र बढ़ता गया उनकी बेटी बड़ी हुई , उन्होंने उनकी शादी की । अब घर में बचे केवल वो दोनों और मैं । अब वैसा माहौल नही रहा । रामु काका की पत्नी का देहांत हो गया । वे अपनी ज़मीन पर मंदिर बनवाने के लिए दान कर दिए, और खुद काशी चले गए ।
यह सच है सभी एक समान नही होते , सभी दूसरे की पीड़ा को नही समझते। मंदिर के प्रांगण बनाने के लिए ज़मीन की आवश्यकता शायद मुझे ख़त्म कर डाले। क्योंकि कुछ आदमी का कहना है कि ये पेड़ काटना होगा , यदि प्रागण बढ़ाना है तो । मैं तो सहम - सा गया हूँ। कल मेरी दो बड़ी शाखा काट दी गयी । मैं घायल हूँ । और इन्तजार कर रहा हूँ , अपने मशीहा रामु काका का , जिसने मुझे पाल-पोषकर बड़ा किया । मैं इन्तजार कर रहा हूँ , अपने मित्र व पिता समान प्रसाद जी जैसे मनुष्य का !! लेकिन शायद हमारे भाग्य में यही लिखा है । हम तो केवल मानव के दुश्मन है शायद ,वरना कौन इस तरह बिना कशूर के सज़ा का भागी बनता है ।
मेरे कल का तो मुझे मालूम नही है लेकिन अगर ऐसा चलता रहा तो मुझे आपके कल का एहसास हो रहा है कि आप भी मेरे तरह एक दिन रोओगे ।
वैसे मेरी उम्र करीब 34 वर्ष है, हालाकि आपको पता होगा हमारी जाती के पेड़ मोटे, और लंबे आयु वाले होते हैं। पर मुझे ऐसा नही लग रहा है कि मैं हाफ सेंचुरी भी पार कर पाऊँ।
आज से 34 वर्ष पहले मुझे बीज से पौधा का रूप देने वाले 'पंडित रामप्रसाद 'जी का मैं शुक्रगुज़ार हूँ । वे मानव जाति के तोहफे थे। मेरी देखभाल करना तो मानो उनकी दिनचर्या ही थी । मेरे ऊपर प्यार से पानी उड़ेलना, माटी को खुरपी से मेरे उपयुक्त बनाना ताकि मेरी जड़े मजबूत हो,ये सारी चीजें वो मेरे लिए किया करते थे ।मैंने इंसान के रूप में भगमान को देखा है ,जो की रामु काका ( रामप्रसादजी)थे । उनकी दो बेटियां थी, काफी चंचल और नटखट , मेरे डालियों पर उछलना, कूदना , बैठना , झुलना उफ़!!! मुझे तो सोने ही नही देती थी । लेकिन बहुत प्यारी थी । मुझे उनके साथ एक गजब का सुकून मिलता था ।एहसास होता था कि मैं भी उनके परिवार का एक सदस्य हूँ । बड़ पूजा के दिन उनकी पत्नी मुझे कोमल दागो से लपेटती थी और चन्दन को लेपति थी । मेरे चारों ओर परिक्रमा करती थी । मुझे तो उस दिन बहुत मज़ा आता था । क्योंकि मुझे एहसास होता था कि मेरा भी कुछ मह्त्व है वरना मैंने तो केवल अपने दोस्तों को खोते देखा है। अपने परिवार को तो मैंने कभी नही देखा लेकिन मुझे एक परिवार मिला रामु काका के संग । वैसे मैंने काका से अपने बच्चो को समझाते हुए सुना है कि उन्हें हमारी सेवा इसिलए करनी चाहिए क्योंकि हमारे बगैर वे सांस नही ले सकते । अगर ये सच है तो हमें सभी को अपना परिवार समझना चाहिए न । लेकिन ये क्या ? वे तो हमारे पिछे परे हैं हमें काटकर अपनी जीवन को सुलभ बनाने की बात कहाँ तक सही है ये तो भगवान् ही जाने । लेकिन इतना तो जान पड़ता है कि वे भी अंत्ततः लुप्त के कगार पर खरे हो जायेंगे ।
इतना तो मुझे पता है कि समय बहुत बलवान है , समय का चक्र बढ़ता गया उनकी बेटी बड़ी हुई , उन्होंने उनकी शादी की । अब घर में बचे केवल वो दोनों और मैं । अब वैसा माहौल नही रहा । रामु काका की पत्नी का देहांत हो गया । वे अपनी ज़मीन पर मंदिर बनवाने के लिए दान कर दिए, और खुद काशी चले गए ।
यह सच है सभी एक समान नही होते , सभी दूसरे की पीड़ा को नही समझते। मंदिर के प्रांगण बनाने के लिए ज़मीन की आवश्यकता शायद मुझे ख़त्म कर डाले। क्योंकि कुछ आदमी का कहना है कि ये पेड़ काटना होगा , यदि प्रागण बढ़ाना है तो । मैं तो सहम - सा गया हूँ। कल मेरी दो बड़ी शाखा काट दी गयी । मैं घायल हूँ । और इन्तजार कर रहा हूँ , अपने मशीहा रामु काका का , जिसने मुझे पाल-पोषकर बड़ा किया । मैं इन्तजार कर रहा हूँ , अपने मित्र व पिता समान प्रसाद जी जैसे मनुष्य का !! लेकिन शायद हमारे भाग्य में यही लिखा है । हम तो केवल मानव के दुश्मन है शायद ,वरना कौन इस तरह बिना कशूर के सज़ा का भागी बनता है ।
मेरे कल का तो मुझे मालूम नही है लेकिन अगर ऐसा चलता रहा तो मुझे आपके कल का एहसास हो रहा है कि आप भी मेरे तरह एक दिन रोओगे ।
Anonymous:
awesome answer abhi bhai !
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ASNWER:
I hope I can help you
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