पिऊ वियोग अस बाउर जीऊ। पपिहा निति बोले-बोले पिउ-पीऊ॥
अधिक काम दाधै सौ रामा। हरि लेई सुआ गएअ पिउ नामा ॥
विरह बान तस लागन डोली। रकत पसीज, भीजि गइ चोली ॥
सूख हिया, हार भा भारी। हरे-हरे प्रान तजहिं सब नारी ॥
खन एक आव पेट महँ साँसा। खनहिं जाइ, जिउ, होइ निरासा ॥
पवन डोलावहि, सोचहिं चोला। पहर एक समझाहि मुख बोला ॥
प्रान प्रयान होत को राखा। को सुनाव पीतम कै भाखा ॥
आहि जो मारै विरह कै, आगि उठै तेहि लागि ॥
हँस जो रहा सरीर महँ, पाँख जरा, गा भागि ॥
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ये पंक्तियाँ मलिक मुहम्मद जायसी द्वारा लिखी गई 'पद्मावत' के 'नागमती वाययोग खंड' से उद्धृत हैं।
Explanation:
जायसी की दूर की और गहरी भावनाओं का सबसे प्रेरक वर्णन नागमती के वर्णन में है।
उनके शब्दों में, कमल कुर्श्लेस्ता: "दर्द रहित, विनीत, प्रेरणादायक, गंभीर, शुद्ध और शुद्ध दर्द, जैसा कि इस स्पष्टीकरण में देखा गया है, अन्यत्र दुर्लभ है।"
वास्तव में, इसे पद्मावत का जीवन बिंदु माना जा सकता है।
विमुख मन की संवेदनाओं के शिखर को देखकर ऐसा लगता है कि कवि, एक बुद्धिमान प्रेम रूपी, नागमाती को अपने में समाहित करता है। जैसा समझाया गया है, दर्द खुद ही दिखने लगा है।
नागमती से अलग होने की वजह भी यही है।
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