'प्यारा गाँव' पाठ के आधार पर देश के विकास में घरेलू उद्योगों की क्या भूमिका रही है?
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हमारे देश में उत्पादन और राष्ट्रीय आय की वृद्धि में लघु व कुटीर उद्योगों का बहुत महत्व है । कुटीर उद्योग परम्परागत उद्योग हैं, इनमें कम पूंजी लगती है तथा घर के सदस्यों द्वारा ही वस्तुएं बना ली जाती है । लघु उद्योग में भी कम पूंजी लगती है ।
लघु उद्योग इकाई ऐसा औद्योगिक उपक्रम है जहाँ संयंत्र एवं मशीनरी में निवेश 1 करोड़ रुपए से अधिक न हो, किन्तु कुछ मद जैसे कि हौजरी, हस्त-औजार, दवाइयों व औषधि, लेखन सामग्री मदें और खेलकूद का सामान आदि में निवेश की सीमा 5 करोड़ रु. तक थी, लघु उद्योग श्रेणी को नया नाम लघु उद्यम दिया गया है ।
सरकार अब इन उद्योगों हेतु ऋण उपलब्ध करा रही है और इससे उत्पादन बढ़ाने में मदद मिल रही है तथा बेरोजगारों को रोजगार प्राप्त हो रहा है ।
भारतीय अर्थव्यवस्था में कुटीर एवं लघु उद्योगों का स्थान प्राचीन काल से ही महत्त्वपूर्ण रहा है। एक जमाना था जब भारतीय ग्रामोद्योग उत्पाद का निर्यात विश्व के अनेक देशों में किया जाता था। भारतीय वस्तुओं का बाजार चर्मोंत्कर्ष पर था । किन्तु औपनिवेशिक शासन में ग्राम उद्योगों का पतन हो गया । फलतः हमारे गाँव एवं ग्रामवासी गरीबी के दल.दल में फँस गए हैं । ऐसे गाँवों के विकास में ग्राम.उद्योग का अपना महत्व है।
विकास के अभाव में भारत की समृद्धिए सम्पन्नता व आत्मऩिर्भरता अर्थहीन है। विश्वविद्यालय शिक्षा आयोग ;1949 ने अपनी रिपोर्ट में जीवन के महत्व को स्पष्ट करते हुए लिखा है नगरों का विकास गाँवों से होता है और नगरवासी निरन्तर ग्रामवासियों के परिश्रम पर ही पनपते हैं। जब तक राष्ट्र का ग्रामीण कर्मठ है तब तक ही देश की शक्ति और जीवन आरक्षित है। जब लम्बे समय तक शहर गाँवों से उनकी आभा और संस्कृति को लेते रहते हैं और बदले में कुछ नहीं देतेए तब वर्तमान ग्राम्य जीवन तथा संस्कृति के साधनों का ह्रास हो जाता है और राष्ट्र की शक्ति कम हो जाती है।
गाँवों के विकास में लघु एवं कुटीर उद्योग की भूमिका को स्पष्ट करते हुए राष्ट्रपिता महात्मा गाँधी ने कहा थाःजब तक हम ग्राम्य जीवन को पुरातन हस्तशिल्प के सम्बंध में पुनः जागृत नहीं करते, हम गाँवों का विकास एवं पुनर्निर्माण नही कर सकेंगे। किसान तभी पुनः जागृत हो सकते हैं जब वे अपनी जरूरतों के लिये गाँवों पर ही निर्भर रहें न कि शहरों पर, जैसा की आज। उन्होनें आगे कहा था, बिना लघु एवं कुटीर उद्योगों के किसान मृत है, वह केवल भूमि की उपज से स्वयं को नहीं पाल सकता। उसे सहायक उद्योग चाहिए। गाँधीजी ने परतंत्रत काल में भारतवासियों की दुर्दशा देखने के बाद राष्ट्रीय आन्दोलन एवं विकास की दृष्टि से एकादश व्रत के साथ-साथ कुछ रचनात्मक कार्यक्रम तय किए थे। इसमें खादी और दूसरे ग्रामोद्योग को ग्राम विकास की दृष्टि से काफी महत्त्वपूर्ण माना जा रहा है। उस समय भी विदेशी वस्तुओं का बहिष्कार कर विदेशी व्यापार को चोट पहुँचाने की दृष्टि से इसका महत्व कम नहीं था।