History, asked by supriya113151, 11 months ago

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ARYAN
Dabs II
बाबा भारती की चीख में भय
विस्मय और निराशा क्यों थी?​

Answers

Answered by sabiyasheikh2207
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Explanation:

संध्या का समय था। बाबा भारती सुल्तान की पीठ पर सवार होकर घूमने जा रहे थे। इस समय उनकी आंखों में चमक थी, मुख पर प्रसन्नता. कभी घोड़े के शरीर को देखते, कभी उसके रंग को और मन में फूले न समाते थे. सहसा एक ओर से आवाज़ आई-

“ओ बाबा, इस कंगले की सुनते जाना…”

आवाज़ में करुणा थी. बाबा ने घोड़े को रोक लिया।. देखा, एक अपाहिज वृक्ष की छाया में पड़ा कराह रहा है। बोले-

“क्यों तुम्हें क्या कष्ट है?”

अपाहिज ने हाथ जोड़कर कहा-

“बाबा, मैं दुखियारा हूं… मुझ पर दया करो…. रामावाला यहां से तीन मील है, मुझे वहां जाना है…. घोड़े पर चढ़ा लो, परमात्मा भला करेगा…।”

“वहां तुम्हारा कौन है?”

“दुर्गादत्त वैद्य का नाम आपने सुना होगा. मैं उनका सौतेला भाई हूं.”

बाबा भारती ने घोड़े से उतरकर अपाहिज को घोड़े पर सवार किया और स्वयं उसकी लगाम पकड़कर धीरे-धीरे चलने लगे..। सहसा उन्हें एक झटका-सा लगा और लगाम हाथ से छूट गई..।. उनके आश्चर्य का ठिकाना न रहा, जब उन्होंने देखा कि अपाहिज घोड़े की पीठ पर तनकर बैठा है और घोड़े को दौड़ाए लिए जा रहा है…! उनके मुख से भय, विस्मय और निराशा से मिली हुई चीख निकल गई. वह अपाहिज, डाकू खड़गसिंह था…।

ठीक ऐसा ही मेरे साथ भी हुआ…!

कुछ साल पहले जब मैं शाहबाद में तैनात था तो सुबह सुबह मैं जैसे ही अपने कार्यालय पहुंचा तो एक लाचार सा बूढा लाठी टेकता हुआ मेरे आगे आ खड़ा हुआ। उसका बुढ़ापा लाठी और विवशता देख कर मुझसे ना रहा गया तो मैंने उससे पूछ लिया-

“बाबा..! क्या समस्या है आपको..?कई बार देख चुका हूं आपको…? वो बोले-

“क्या बताऊं बेटा…! पिछले पच्चीस सालों से इसी तहसील के चक्कर लगा रहा हूं..!”

मैंने पूछा-

” ऐसा क्या है जो इतने सालो में भी तय नहीं हुआ और आप तहसील के चक्कर लगा रहे हैं..?”

इस पर वह बुजुर्ग बोला-

“एक मुकदमा है ..जो कई सालों से चल रहा है…!”

मैंने बुजुर्ग वार को आश्वस्त किया-

“.बाबा…अब परेशान होने की आवश्यकता नहीं है… मैं अवश्य आपका मुकदमा तय कर दूंगा…अपने वकील को बुला कर लाइएगा…!”

मैंने उसे यह कोरा आश्वासन नहीं दिया अपितु उन बुजुर्ग के वकील के आने पर समूचा ब्योरा विस्तार से सुना ….!

इन सज्जन के वकील ने बताया कि ये बुजुर्ग सज्जन हकीम हैं और उनके बचपन में गांव में चकबंदी संपन्न हुई थी जिसमें हकीम साहब के नाम कुछ जमीन का स्वामित्व घोषित हुआ था लेकिन अभिलेखों में बुजुर्ग का नाम अंकित नहीं हो पाया था…। वकील साहब भी तहसील के प्रतिष्ठित वकील थे और तहसील बार एसोसिएशन के कई बार अध्यक्ष रह चुके थे इसलिए मैंने उनकी बात पर विश्वास किया और उन्हें आश्वस्त किया और समय आने पर अपने कहे को निभाने का वादा कर उस बूढ़े हकीम को तहसील से विदा किया…!

उस बूढ़े हकीम का नाम था हमीदुल्लाह… जिसका नाम आपने मेरे साथ हुए हादसे के साथ अखबार की सुर्खियों में अवश्य पढ़ा होगा….।

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