पहाड़ी लघु चित्रकला की सतह का निर्माण कैसे किया जाता है। उसका उसका उद्देश्य क्या है
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पहाड़ी लघु चित्रकला – अंकन दास
मैं हाल ही में शिमला गई थी। वहाँ मुझे ‘अंकन दास’ मिले जो पहाड़ी लघु चित्रकला शैली के छात्र हैं। उन्होंने मुझें और मेरे दोस्तों को इस शैली के इतिहास और वर्तमान से रूबरू करवाया।
भारत में राजपूत और मुग़ल लघु चित्रकला शैली बहुत सालों से विख्यात हैं। उनके मुकाबले पहाड़ी लघु चित्रकला हाल ही में बहुचर्चित हुई हैं।
सन १९१६ में पहली बार श्री कुमार स्वामी ने पहाड़ी लघु चित्र शैली को राजपूत और मुगल लघु चित्र शैली से अलग बताया। क्योंकि जिस जगह पर कला का अपना आविष्कार होता है उससे कला को ढंग प्राप्त होता है, पहाड़ी लघु चित्रकला के दो ढंग बताए जाते हैं। गुलेर शैली और कांगड़ा शैली।
गुलैर शैली का उगम कश्मीर और हिमाचल प्रदेश में हुआ। १७ वी सदी में पंडित सेउ इस शैली में चित्र बनाने के लिए विख्यात थे। आज के रोज में पहाड़ी लघु चित्र शैली का अस्तित्व उन्हीं से माना जाता है। आज के पीढ़ी के लगभग सभी कलाकार उन्हीं के घराने से आते हैं। उनके दो बेटे पंडित नयनसुख और पंडित मानकु इन्हें जसरोठा और बसौली में मौजूद पहाड़ी लघु चित्र शैली में अग्रक्रम पर माना जाता है।
गूलैर की चित्रकला शैली के घराने से कलाकार अपनी कला के विकास के लिए नानाविध प्रदेश घूमते। वैसे ही वे लोग मुगल दरबार में भी जाते। अपनी शैली का विकास कर और उसमें पहाड़ी रंग भर वह फिर अपने अपने अलग रास्ते गए। ऐसे ही पहाड़ी लघु चित्र शैली विविध जगह पर पहुंची।
गूलैर घराने के मुकाबले पहाड़ी लघु चित्र शैली का कांगड़ा घराना बाद में विकसित हुआ। ऐसी एक मान्यता है कि कांगड़ा घराने के कलाकारों का उगम गुजरात के लघु चित्रकारों से होता है। उनका अभी का सामाजिक व्यवहार और पहचान ग्यारहवीं और बारहवीं सदी के गुजरात के लघु चित्रकारों से मिलती जुलती है (जैसे गोत्र समान होना)।