पहर दोपहर क्या,
अनेकों पहर तक
इसी में रही मैं
खड़ी देख अलसी
लिए शीश कलसी
मुझे खूब सुझी-
हिलाया-झुलाया
गिरी पर न कलसी!
इसी हार को पा,
हिलाई न सरसों,
झुलाई न सरसों,
हवा हूँ, हवा मैं,
बसंती हवा हूँ।
पंक्तियों का अर्थ समझाए
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are baap re baap yeh to poem maine kabhi nahi padha
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is Kavita ka matlab hai dupahar me
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