Pan nahi Aage kha lenge isko Karam bachya Mein bataiye
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सोलहवीं शताब्दी में हिन्दी साहित्य-क्षेत्र में तीन धाराएँ प्रबल वेग से बहती दृष्टिगत होती हैं। पहली निर्गुणवाद सम्बन्धी,दूसरी सगुणवाद या भक्तिमार्ग-सम्बन्धी और तीसरी रीति ग्रन्थ-रचना सम्बन्धी। इस सदी में निर्गुणवाद के प्रधान प्रचारक कबीर साहब, गुरु नानकदेव और दादूदयाल थे। सगुणोपासना अथवा भक्तिमार्ग के प्रधान प्र्रवत्ताक कविवर सूरदास और गोस्वामी तुलसीदास थे। रीति ग्रन्थ-रचना के प्रधान आचार्य केशवदास जी कहे जा सकते हैं। इन लोगों ने अपने-अपने विषयों में जो प्रगल्भता दिखलाई, वह उत्तारकाल में दृष्टिगत नहीं होती। परन्तु उनका अनुगमन उत्तारकाल में तो हुआ ही, वर्तमान काल में भी हो रहा है। मैं यथाशक्ति यह दिखलाने की चेष्टा करूँगा कि ई. सत्राहवीं शताब्दी में इन धाराओं का क्या रूप रहा और फिर अठारहवीं और उन्नीसवीं शताब्दी में उनका क्या रूप हुआ। इन तीनों शताब्दियों में जो देश कालानुसार अनेक परिवर्तन हुए हैं और भिन्न-भिन्न विचार भारत वसुन्धारा में फैले हैं। उनका प्रभाव इन तीनों शताब्दियों की रचनाओं में देखा जाता है। साथ ही भाव और भाषा में भी कुछ न कुछ अन्तर होता गया है। इसलिए यह आवश्यक ज्ञात होता है कि इन शताब्दियों के क्रमिक परिवर्तन पर भी प्रकाश डाला जावे और यह दिखलाया जावे कि किस क्रम से भाषा और भाव में परिवर्तन होता गया। यह बात निश्चित रूप से कही जा सकती है कि इन तीनों शताब्दियों में न तो कोई प्रधान धर्म-प्र्रवत्ताक उत्पन्न हुआ, न कोई सूरदास जी एवं गोस्वामी तुलसीदास जी के समान महाकवि, और न केशवदास जी के समान महान् रीति-ग्रन्थकार। किन्तु जो साहित्य-सम्बन्धी विशेष धाराएँ सोलहवीं शताब्दी में बहीं, वे अविच्छिन्न गति से इन शताब्दियों में भी बहती ही रहीं,चाहे वे उतनी व्यापक और प्रबल न हों। इन तीनों शताब्दियों में उस प्रकार की प्रभावमयी धारा बहाने में कोई कवि अथवा महाकवि भले ही समर्थ न हुआ हो, परन्तु इन धाराओं से जल ले-लेकर अथवा इनके आधार से नई-नई जल प्रणालियाँ निकाल कर वे हिन्दी साहित्य-क्षेत्र के सेचन और उसको सरस और सजल बनाने से कभी विरत नहीं हुए। इन शताब्दियों में भी कुछ ऐसे महान् हृदय और भावुक दृष्टिगत होते हैं जिनकी साहित्यिक धाराएँ यदि उक्त धाराओं जैसी नहीं हैं तो भी उनसे बहुत कुछ समता रखने की अधिकारिणी कही जा सकती हैं, विशेष कर रीतिग्रन्थ-रचना के सम्बन्धा में। परन्तु उनमें वह व्यापकता और विशदता नहीं मिलती, जो उनको उनकी समकक्षता का गौरव प्रदान कर सके। मैंने जो कुछ कहा है, वह कहाँ तक सत्य है, इसका यथार्थ ज्ञान आप लोगों को मेरी आगे लिखी जाने वाली लेखमाला से होगा।
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