परि
हिंद
के
पत्र
बदला-बदला-सा मौसम है
बदले-से लगते हैं सुर ।
दीदा फाड़े शहर देखता
गाँव देखता टुकुर-टुकुर ।
तिल रखने की जगह नहीं है
शहर ठसाठस भरे हुए।
उधर गाँव में पीपल के हैं
सारे पत्ते झरे हुए।
मेट्रो के खंभे के नीचे
रात गुजारे परमेसुर ।
दीदा फाड़े शहर देखता
गाँव देखता टुकुर-टुकुर ।।
इधर शहर में सारा आलम
आँख खुली बस दौड़ रहा।
वहाँ रेडियो पर स्टेशन
रामदीन है जोह रहा।
उनकी बात सुनी है जबसे
दिल करता है धुकुर-पुकुर ।
सुरसतिया के दोनों लड़के
सूरत गए कमाने।
गेहूँ के खेतों में लेकिन
गिल्ली लगीं घमाने ।
लँगड़ाकर चलती है गैया
सड़कों ने खा डाले खुर।
दीदा फाड़े शहर देखता
गाँव देखता टुकुर-टुकुर।
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ritbgntdbxrhxhfsxfbxxcsdfgh
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gfsxnkurdcjjutrg
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