परोपकारी मनुष्य पैसा माती लेवा मा आवे छे
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ईश्वर ने मानव को संवेदनशील हृदय दिया है, जो दुख में दुखी और सुख में खुशी महसूस करता है। किन्तु आज मनुष्य स्वयं के वशीभूत होकर दूसरे के दुख को समझ नहीं पा रहा है। सच्चा परोपकारी वही है, जो दूसरों के दुखों से दुखी होकर तुरंत सहायता के लिए तत्पर हो जाता है। यह तभी संभव है, जब हम परिवार में बच्चों को संस्कारवान बनाने के लिए ऐसा वातावरण दें, जो व्यवहारिक हो।
स्वामी विवेकानंद, शहीद भगत ¨सह, नेता जी सुभाष चंद्र बोस, अबुल कलाम आजाद को संस्कार परिवार से मिले थे। इनके उपकारों का ऋण क्या कभी देश चुका पाएगा? माता-पिता का कर्तव्य है कि वह अपनी संतान को चरित्रवान बनाए और उनमें नैतिक गुणों का समावेश करें। आज पढ़े-लिखे नौजवान अपनी मस्ती में मस्त रहते हैं, वे भौतिक सुख जुटाने में लगे हुए हैं। उनके समक्ष कितनी ही दयनीय स्थिति में कोई पड़ा हो, उन पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता। अगर हमारा युवा वर्ग संवेदनशील हो जाए और दूसरों की सहायता के लिए तत्पर हो जाए तो समाज में फैली अपरोपकार की भावना समाप्त हो जाएगी।
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यदि हम परोपकार की प्रवृति अपनाएं तो विश्व में समस्त मानव जाति की सेवा कर सकते हैं। यह कार्य करने पर हमें जो सुख मिलेगा, वह अलौकिक होगा। कवि श्रीनाथ जी ने मानव को संबोधित करते हुए लिखा है: