परोपकार पर अनुच्छेद
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मनुष्य सामाजिक प्राणी है । परस्पर सहयोग उसके जीवन का महत्वपूर्ण अंग है । वह दूसरों के सहयोग के बिना जीवनयापन नहीं कर सकता, तो दूसरी और समाज को उसके सहयोग की आवश्यकता पड़ती है ।
इस प्रकार समाज में प्रत्येक व्यक्ति एक-दूसरे को सहयोग सहायता देते तथा लेते रहते हैं । इसे परोपकार भी कहा जाता है । परोपकार शब्द-दो शब्दों के मेल से बना है ‘पर’+उपकार करना । इस प्रकार परोपकार अर्थ है: अपनी चिंता किए बिना सभी सामान्य विशेष की भले की बात सोचना आवश्यकता अनुसार और यथाशक्ति हर संभव उपाय से भलाई करना ।
भारतीय संस्कृति की आरंभ से ही व्यक्ति को स्वार्थ की संकुचित परिधि से निकल कर परोपकार की ओर उन्मूख करने की प्रेरणा देती रही है । भारतीय संस्कृति में ‘पर पीड़ा’ को सबसे बडा अधर्म कहकर संबोधित किया गया है । गोस्वामी तुलसीदास ने इसीलिए कहा था:
”परहित सरिस धर्म नहिं भाई
पर पीड़ा सम नहिं अधमाई ।”
सीताजी की रक्षा में अपने प्राणों की बाजी लगा देने वाले गीधराज जटायु से राम ने कहा था:
”परहित बस जिन्ह के मन माहीं
तेन्ह कहुजग दुलर्भ कछु नाही ।।”
तुमने अपने सत्कर्म से ही सद्गति का अधिकार पाया है: इसमें मुझे कोई श्रेय नहीं क्योंकि जो परोपकारी है उसके लिए संसार में कुछ दुर्लभ नही है । प्रकृति का कण-कण हमें परोपकार की प्रेरणा देता है । कविवर नरेंद्र शर्मा ने इसलिए कहा है: ”सर्जित होते मेधविसर्जित, कण-कण पर हो जाने, सरिता कभी नही बहती अपनी प्यास बुझाने । देती रहती है आधार धरा हम से क्या पाने अपने लिए न रत्नाकर का अगं-अंग दहता है ।”
बादल अपने लिए नहीं बरसते, नदियाँ अपना जल स्वयं नही पीती । पृथ्वी हमसे कुछ पाने के बदले हमें सहारा नहीं देती समुद्र का कण-कण भी परोपकार के लिए ही तो है । ठीक इसी प्रकार सज्जनों का धन-ऐश्वर्य आदि परोपकार के लिए होता है ।
”परमारथ के कारने साधुन धरा शरीर” मनुष्य और पशु में एक ही बात का प्रमुख अंतर है । पशु केवल अपने लिए जीता है जबकि मनुष्य दूसरों के लिए भी जी सकता है: ”यही पशु प्रवृत्ति है आप आप ही चरे वही मनुष्य है कि जो मनुष्य के लिए मरे ।”
हमारा प्राचीन इतिहास ऐसे उदाहरणों से भरा पड़ा है कि जिससे ज्ञात होता है कि किस तरह यहाँ के लोगों ने परोपकार के लिए अपनी धन संपति तो क्या अपने घर-द्वार राजघाट और आवश्यकता पड़ने पर अपनी देह तक अर्पित कर दिए ।
महर्षि दधीचि के उस अवदान को कैसे भुलाया जा सकता है कि जिन्होंने असुरों का नाश करने के लिए देवराज इन्द्र को अपनी अस्थियाँ दे दी थी, ताकि उनका वज बनाकर आसूरी शक्तियों पर वज्रपात किया जा सके । भारतीय जीवन में परहित-साधन को हमेशा एक शुभ कार्य, परम धर्म और परम कर्तव्य माना जाता रहा है ।
यहाँ जो यज्ञों का विधान मिलता है, कई प्रकार के व्रतोपवासों की योजना मिलती है, उत्सव और त्यौहार मिलते हैं सभी के मूल में एक ही तत्व काम करता हुआ दिखाई देता है । वह तत्व हैं जन-कल्याण और परोपकार का ।
यहाँ जो गुरूकुलों-ऋषिकुलों में शिक्षा की व्यवस्था सामाजिक दायित्वों का अंग रही है, उसके मूल भी आम-खास को एक समान समझकर समान स्तर और रूप से शिक्षित बनाकर ऊपर उठाने की भावना रही है । ऐसी-ऐसी व्यवस्थाएँ मिलती हैं कि जो हर कदम पर परोपकार की शिक्षा और प्रेरणा देने वाली हैं ।
भूखे को रोटी खिलाना प्यासे को पानी पिलाना अतिथि-सेवा करना धर्मशालाएँ बनवाना जैसी सारी बातें परोपकार की ही तो शिक्षा और प्रेरणा देने वाली हैं । यहाँ धर्मपूर्वक अर्थ (धन) कमाने, धर्मपूर्वक अपनी कामनाएँ पूरी करने और ऐसा करते हुए अंत में मोक्ष पाने को जीवन का चरम लक्ष्य रखा गया है ।
सभी पुरूषार्थों के साथ ‘धर्म’ शब्द जोड़ने का यह तात्पर्य कदापि नहीं है कि कुछ भी करने से पहले धूप-दीप जलाकर पूजा-पाठ करो, बल्कि यह है कि हर कार्य मानवीय कर्तव्य-पालन की दृष्टि से करो । धर्मपूर्वक अर्थ कमाने की वास्तविक व्याख्या रही है कि किसी को दुखी पीड़ित एवं शोषित करके धन न कमाओं बल्कि इसलिए कमाओ कि उससे सभी का असमर्थों और पिछड़े हुओं का उत्थान संभव हो सके ।
सभी समान रूप से उन्नति की दिशा में आगे बढ़ सकें । सभी की सब तरह की आवश्यकताएँ पूरी हो सकें । तभी तो यहाँ के वैदिक मत्र द्रष्टाओं तक ने परोपकार को महत्व देने वाले उद्घोष स्थान-स्थान पर किए: ‘सर्वे भव्ंतु सुखिन: सर्वे संतु निरामय सर्वे भद्राणि पश्यंतु मा कश्चित् दुख भाग भवेतु । अर्थात सभी सुखी हों सभी निरोगी हों सभी का कल्याण हो और कोई दुख न पावे ।
आज के वैज्ञानिक युग में परोपकार की भावना का लोप हो गया है । पश्चिम के प्रभाव ने हमें अपनी उदात्त सांस्कृतिक चेतनाओं से विमुख कर दिया है । आज चारों ओर अशांति हिंसा ईर्ष्या स्वार्थपरता कलह आदि का बोल बाला है । आज बड़े तथा समृद्ध राष्ट्र जिस पर विकासशील दुर्बल तथा निर्धन राष्ट्रों का शोषण कर रहे हैं, उन्हें अपनी उंगलियों पर नचाने का प्रयास कर रहे हैं, वह भी कुत्सित स्वार्थ वृत्ति का ही द्योतक है ।
स्वार्थवृत्ति के कारण ही आज समूचा विश्व विनाश के कगार पर खड़ा है क्योंकि संहारक अस्त्र-शस्त्र कुछ ही पलों में समूची मानवता एवं सभ्यता का ध्वंस कर सकते हैं । ऐसी स्थिति में केवल परोपकार की भावना की मानवता को बचा सकती है । आज हमें कवि की इन पंक्तियों को अपने जीवन में उतारना होगा ।
”हम हों समष्टि के लिए व्यष्टि बलिदानी ।”
आशा है मेरा उत्तर आपका काम आए