Hindi, asked by dipikawarade25, 6 months ago

परिस्थितिक तंत्र का निबंध Hindi

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Answered by jyoti3297
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Explanation:

मनुष्य ऐतिहासिक, सामाजिक, दार्शनिक तथा आध्यात्मिक प्राणी है । वह भी अन्य प्राणियों की भाँति पृथ्वी पर भागीदार है और उत्तम योग्यता होते हुए भी मानव जाति अनेक भौतिक तथा जैविक कारणों के अधीन है । उदाहरणार्थ- मानव-भोजन जल अथवा थल में विद्यमान हरे पौधों से प्राप्त होता है ।ये पौधे सूर्य से प्राप्त प्रकाश ऊर्जा को फोटोसिंथेसिस द्वारा रासायनिक ऊर्जा में परिवर्तित कर देते हैं । मनुष्य जो साँस लेता है वह भी इन्हीं पौधों द्वारा छोड़ी गई ऑक्सीजन के उत्पन्न होने पर संभव है । इस प्रकार पौधे तथा जीव-जंतु पर्यावरण के जैविक तत्व होने के कारण परिस्थिति-तंत्र के जीवित भाग की रचना करते हैं ।अत: सभी जीव-जंतु पृथ्वी के प्राकृतिक स्रोत पर पूर्णतया निर्भर हैं । पर्यावरण के किसी भी तत्व को किसी भी प्रकार का खतरा प्राणी के स्वयं के जीवन को खतरा है । यदि मनुष्य अपनी सीमित सीमाओं में विचरण करता है, चाहे अगाध समुद्र हो अथवा अनंत आकाश, तो उसको एक जैसा ही भूमंडल मिलता है ।वह रसायन, शोर तथा अत्यधिक उद्दीपन द्वारा प्रदूषित पर्यावरण में जीवित रह सकता है । किंतु वह अपने स्वास्थ्य तथा मस्तिष्क को तभी ठीक रख सकता है जब वह इन प्रदूषकों से किसी न किसी तरीके से अपने आपको सुरक्षित कर सके ।

वायु, जल, मिट्टी, अग्नि, प्रकृति की ध्वनि तथा जीवधारियों की प्रजाति केवल रासायनिक मिश्रण, भौतिक शक्तियाँ अथवा जैव-क्रिया रूप में रुचिकर ही नहीं है, बल्कि इनके ही प्रभाव से मानव-जीवन इस रूप में है और इनके द्वारा उत्पन्न वस्तुएँ ही मानव-जीवन की आवश्यकता की पूर्ति करती हैं ।

मनुष्य, मानव-जाति की जनन-रचना में संशोधन नहीं कर सकता बल्कि उसका मानव-जीवन के स्वरूप पर नियंत्रण है, क्योंकि उसने पर्यावरण कारकों के अनुसार रहना सीखा है । व्यक्तिगत अथवा सामूहिक रूप से मनुष्य अपने अस्तित्व के प्रत्येक क्षण के लिए स्वयं ही उत्तरदायी है ।

मनुष्य की वास्तविक आवश्यकता वह है जिसको वह चाहता है और वे आशाएँ निर्भर करती हैं उस वातावरण पर जिसमें वह रहता है अथवा जिसमें उसका पालन-पोषण हुआ है । अत: मनुष्य पर्यावरण को अपनी इच्छानुसार बना लेता है और फिर यही फॉर्मूला वह आने वाली पीढ़ी को सौंप देता है और अपने समाज की स्थापना करता है ।

प्रारंभ से ही मनुष्य ने अनुभव किया है कि वह अपने आराम तथा विकास के लिए प्रकृति के अनुसार स्वयं को रख सकता है, किंतु इन दोनों को प्राप्त करने के लिए उसे प्रकृति से संपर्क करना पड़ता है और बहुत-से साधन तथा कारक इस कार्य में संलग्न हैं ।

प्रथम कारक जनसंख्या में बढ़ोतरी तथा द्वितीय आवश्यकताओं की वृद्धि । 20वीं शताब्दी के आरंभ से ही विज्ञान तथा टेक्नोलॉजी ने मानव को प्राकृतिक स्रोतों के उपयोग के लिए अधिक संख्या में अपूर्व शक्ति के साधन उपलब्ध कराए हैं ।

इन साधनों के निरंतर उपयोग ने पर्यावरण में परिवर्तन एवं धरती पर जीवन के वातावरण तथा रचना में संशोधन कर दिया है । टेक्नोलॉजी के बेलगाम प्रसारण तथा विकास ने परिस्थिति-विज्ञान के संतुलन को खराब कर दिया, मानव-पर्यावरण को अपकर्षित कर दिया तथा जीवन की अच्छाइयों एवं मानव-मन को भ्रष्ट कर दिया ।

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