परिस्थितिक तंत्र में संतुलन स्थापित करने हेतु द्वारा उठाए गए किन्ही तीन कदमों के बारे में बताइए
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पारिस्थितिक असंतुलन का सबसे मुख्य कारण मानवीय क्रियाकलाप हैं जिसके कारण विभिन्न प्रकार के जीव-जंतु एवं पौधे विलुप्त हो रहे हैं। मनुष्यों द्वारा अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति के लिये प्राकृतिक संसाधनों का अतिशय दोहन किया जा रहा है जिससे जीव-जंतुओं एवं पौधों के आवासों का ह्रास एवं विखंडन हो रहा है। मानव द्वारा अति दोहन से पिछले 500 वर्षों में बहुत-सी जातियाँ विलुप्त हो गई हैं।
जब किसी प्राकृतिक क्षेत्र में विदेशी प्रजातियों के जीव-जंतु या पौधों को लाया जाता है, तब उनमें से कुछ प्रजातियाँ आक्रामक होकर स्थानिक प्रजातियों की कमी या विलुप्ति का कारण बन जाती हैं। उदाहरण के लिये, मत्स्य पालन के उद्देश्य से अफ्रीकन कैटफिश को हमारी नदियों में लाया गया, लेकिन अब यह मछली हमारी नदियों की मूल अशल्कमीन मछलियों के लिये खतरा पैदा कर रही है।
सहविलुप्तता भी पारिस्थितिक असंतुलन का प्रमुख कारण है। जब एक जाति विलुप्त होती है, तब उस पर निर्भर दूसरे जंतु व पादप भी विलुप्त होने लगते हैं।
किसी क्षेत्र में बाढ़, दावानल, चक्रवात व ज्वालामुखी जैसी प्राकृतिक आपदाएँ भी कहीं-न-कहीं पारिस्थितिक असंतुलन को बढ़ावा देती है।
किसी भी पारिस्थितिक तंत्र में पौधों व प्राणी समुदायों में घनिष्ठ अंतर्संबंध पाए जाते हैं। इन कारणों का समुचित ज्ञान व समझ ही पारितंत्र के संरक्षण व बचाव के प्रमुख आधार हैं। प्राकृतिक संरक्षण के लिये सरकार के साथ-साथ सभी देशवासियों को इन्हें संरक्षित करने के लिये आगे आना होगा तभी यह जैव विविधता संरक्षित हो पाएगी, क्योंकि जनभागीदारी के बिना किसी भी बड़े कार्य को कर पाना बड़ा मुश्किल होता है।