परिश्रम पर पांच श्लोक अर्थ सहित लिखें
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परिश्रम पर पाँच श्लोक अर्थ सहित
द्वौ अम्भसि निवेष्टव्यौ गले बद्ध्वा दृढां शिलाम् ।
धनवन्तम् अदातारम् दरिद्रं च अतपस्विनम् ।।
अर्थ — जो व्यक्ति धनी होकर भी दान आदि नही करते और जो व्यक्ति निर्धन होने पर भी परिश्रम नही करते, इस प्रकार के लोगों के गले में पत्थर बांधकर समुद्र में फेंक देना चाहिये।
आलस्यं हि मनुष्याणां शरीरस्थो महान् रिपुः।
नास्त्युद्यमसमो बन्धुः कृत्वा यं नावसीदति ।।
अर्थ — आलस्य मनुष्य का सबसे बड़ा शत्रु है और परिश्रम मनुष्य का सबसे बड़ा मित्र है। जिस व्यक्ति के साथ परिश्रम रूपी मित्र रहता है वो कभी भी दुखी नही रह सकता।
उद्यमेन हि सिध्यन्ति कार्याणि न मनोरथैः ।
न हि सुप्तस्य सिंहस्य प्रविशन्ति मुखे मृगाः ।।
अर्थ — संसार में कोई कार्य मात्र सोचने भर से पूरा नही हो जाता, बल्कि कार्य की पूर्ति के लिये कठोर परिश्रम करना पड़ता है, ठीक उसी प्रकार जिस तरह सोते हुये शेर के मुँह में हिरण खुद नही आ जाता बल्कि हिरण के शिकार के लिये शेर को दौड़ना-भागना पड़ता है।
वाणी रसवती यस्य,यस्य श्रमवती क्रिया ।
लक्ष्मी : दानवती यस्य,सफलं तस्य जीवितं ।।
अर्थ — जिस मनुष्य की बोली मिठास भरी है, जिसका प्रत्येक कार्य परिश्रम से भरा है और जिसका धन दान आदि परोपकारी कार्यों में प्रयुक्त होता है, उस व्यक्ति का जीवन सही अर्थों में सफल है।
श्रमेण लभ्यं सकलं न श्रमेण विना क्वचित् ।
सरलाङ्गुलि संघर्षात् न निर्याति घनं घृतम् ॥
अर्थ — शरीर के द्वारा मनपूर्वक किया गया कार्य परिश्रम कहलाता है । परिश्रम के बिना जीवन की सार्थकता नहीं है परिश्रम के बिना न विद्या मिलती है और न धन। परिश्रम के बिना खाया गया भोजन भी स्वादहीन होता है। अतः हमें सदैव परिश्रम करना चाहिए। परिश्रम से ही कोई देश, समाज और परिवार उन्नति करता है।
Answer:
आलस्यं हि मनुष्याणां शरीरस्थो महान् रिपुः |
आलस्यं हि मनुष्याणां शरीरस्थो महान् रिपुः |नास्त्युद्यमसमो बन्धुः कृत्वा यं नावसीदति ||
अर्थार्थ:- मनुष्य का सबसे बड़ा दुश्मन उसका आलस्य है | परिश्रम जैसा दूसरा (हमारा )कोई अन्य मित्र
नहीं होता क्योंकि परिश्रम करने वाला कभी दुखी नहीं होता |
अनादरो विलम्बश्च वै मुख्यम निष्ठुर वचनम
अनादरो विलम्बश्च वै मुख्यम निष्ठुर वचनमपश्चतपश्च पञ्चापि दानस्य दूषणानि च।।
अर्थार्थ:- अपमान करके दान देना, विलंब(देर) से देना, मुख फेर के देना, कठोर वचन बोलना और देने के बाद पश्चाताप करना| ये पांच क्रियाएं दान को दूषित कर देती हैं।
यस्तु सञ्चरते देशान् सेवते यस्तु पण्डितान् !
यस्तु सञ्चरते देशान् सेवते यस्तु पण्डितान् !तस्य विस्तारिता बुद्धिस्तैलबिन्दुरिवाम्भसि !!
यस्तु सञ्चरते देशान् सेवते यस्तु पण्डितान् !तस्य विस्तारिता बुद्धिस्तैलबिन्दुरिवाम्भसि !!
यस्तु सञ्चरते देशान् सेवते यस्तु पण्डितान् !तस्य विस्तारिता बुद्धिस्तैलबिन्दुरिवाम्भसि !! अर्थार्थ:- वह व्यक्ति जो अलग अलग जगहों या देशो में घूमकर (पंडितों) विद्वानों की सेवा करता है, उसकी बुद्धि का विस्तार(विकास) उसी प्रकार होता है, जैसे तेल की बूंद पानी में गिरने के बाद फ़ैल जाती है|
श्रोत्रं श्रुतेनैव न कुंडलेन, दानेन पाणिर्न तु कंकणेन ,
श्रोत्रं श्रुतेनैव न कुंडलेन, दानेन पाणिर्न तु कंकणेन ,विभाति कायः करुणापराणां, परोपकारैर्न तु चन्दनेन ||
श्रोत्रं श्रुतेनैव न कुंडलेन, दानेन पाणिर्न तु कंकणेन ,विभाति कायः करुणापराणां, परोपकारैर्न तु चन्दनेन ||अर्थार्थ:- कुंडल पहन लेने से कानों की शोभा नहीं बढ़ती, अपितु ज्ञान की बातें सुनने से होती है | हाथ, कंगन धारण करने से सुन्दर नहीं होते, उनकी शोभा दान करने से बढ़ती हैं | सज्जनों का शरीर भी चन्दन से नहीं अपितु परहित में किये गये कार्यों से शोभायमान होता हैं।
यथा ह्येकेन चक्रेण न रथस्य गतिर्भवेत् |
यथा ह्येकेन चक्रेण न रथस्य गतिर्भवेत् |एवं परुषकारेण विना दैवं न सिद्ध्यति ||
यथा ह्येकेन चक्रेण न रथस्य गतिर्भवेत् |एवं परुषकारेण विना दैवं न सिद्ध्यति ||अर्थार्थ:- जैसे एक पहिये से रथ नहीं चल सकता है उसी प्रकार बिना पुरुषार्थ के भाग्य सिद्ध नहीं हो सकता है|
परो अपि हितवान् बन्धुः बन्धुः अपि अहितः परः !
परो अपि हितवान् बन्धुः बन्धुः अपि अहितः परः !अहितः देहजः व्याधिः हितम् आरण्यं औषधम् !!
परो अपि हितवान् बन्धुः बन्धुः अपि अहितः परः !अहितः देहजः व्याधिः हितम् आरण्यं औषधम् !!अर्थार्थ:- कोई अपरिचित व्यक्ति भी अगर आपकी मदद करे तो उसे अपने परिवार के सदस्य की तरह ही महत्व दे और अगर परिवार का कोई अपना सदस्य भी आपको नुकसान पहुंचाए तो उसे महत्व देना बंद कर दे. ठीक उसी तरह जैसे शरीर के किसी अंग में कोई बीमारी हो जाए, तो वह हमें तकलीफ पहुंचाती है, जबकि जंगल में उगी हुई औषधी हमारे लिए लाभकारी होती है|