पराधीनता एक अभिशाप पर अनुच्छेद लिखिए
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यदि स्वतन्त्रता सुखों का सागर है, तो पराधीनता दुखों एवं कष्टों की जननी है। पराधीन व्यक्ति के पास चाहे कितनी भी सुख-सुविधाएँ क्यों न हो, वह सच्चे सुख की अनुभूति नहीं कर सकता। पराधीनता तो पशु-पक्षियों की भी मंजूर नहीं होती तभी तो सोने के पिंजरे में बंद तथा सोने की कटोरी में भोजन खाने वाला पक्षी स्वतंत्रता के लिए छटपटाता रहता है। वह तो भूखा रहकर स्वछंदतापूर्वक खुले आकाश में विचरण करना चाहता है।
पराधीन व्यक्ति न तो अपने मन का खा सकता है, न पहन सकता है, न सो सकता है, न कहीं जा सकता है। वह तो बस अपने मालिक की आज्ञा का पालन करता है, अर्थात् उसके पास स्वयं निर्णय लेने का कोई अधिकार नहीं होता। परिणामतः उसकी आत्मा का हनन होता जाता है, उसका आत्म सम्मान खतरे में रहता है, उसकी बुद्धि कुंठित हो जाती है, और उसे विवेक अविवेक का कोई अन्तर समझ में नहीं आता।
वह जडवत् सा अपनात। अपने जीवन का बोझ ढोता है। पराधीन व्यक्ति के व्यक्तित्व का विकास पूर्णतया रुक जाता है। भाव-शून्य होकर उसे अपमानित जीवन जीना पड़ता है। पराधीनता की लज्जा का कलंक सदैव उसके माथे पर लगा रहता है और वह सपने में भी सुख की कल्पना नहीं कर पाता।
तभी तो खूटे से बंधी गाय रस्सी तोड़कर भागना चाहती है तथा पिंजरे में कैद पक्षी पिंजरे के खुलने के इंतजार में रहता है। जब वह ऐसा करने में समर्थ हो जाता है, तो लगता है-जैसे उसे पूरे जमाने की खुशियाँ मिल गई हों।
वास्तव में पराधीनता एक अभिशाप है। पराधीन मनुष्य की जिंदगी उसी तरह हो जाती है, जैसे-पिंजरे में बंद पक्षी। ऐसा जीवन जीने वाला मनुष्य सपने में भी सुखी नहीं हो सकता है। उसे दूसरों का गुलाम बनकर अपनी इच्छाएँ और मन मारकर जीना होता है।