पर्वों का बदलता रूप में स्वरूप पर निबंध
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भारतीय स्वभावत: उत्सवप्रिय होते हैं। वे समय-असमय उत्सव मनाने का बहाना खोज लेते हैं। यह उनके स्वभाव में प्राचीन काल से शामिल रहा है। मनुष्य अपने थके-हारे मन को पुन: स्फूर्ति तथा उल्लासमय बनाने के लिए विभिन्न प्रकार के पर्व मनाता रहा है। मनुष्य के जीवन में पर्वो का महत्वपूर्ण स्थान है, क्योंकि ये मानव-जीवन को खुशियों से भर देते हैं तथा हमें निराशा एवं दुख से छुटकारा दिलाते हैं। वास्तव में पर्व सांस्कृतिक चेतना के वाहक हैं।
पर्वों का बदलता स्वरूप (Parvon Ka Badalata Svaroop) – Changing nature of festivals
भारत में आए दिन कोई-न-कोई पर्व और त्योहार मना लिया जाता है। यहाँ कभी महापुरुषों की प्रेरणाप्रद पुण्यतिथियों तथा जयंतियों का आयोजन किया जाता है तो कभी ऋतु मौसम, महीने के आगमन और प्रस्थान पर पर्व मनाए जाते हैं। साथ ही धार्मिक तथा क्षेत्रीय पर्व एवं त्योहर भी मनाए जाते हैं।
इनमें से राष्ट्रीय और धार्मिक पर्व विशेष महत्व रखते हैं। कुछ पर्व ऐसे होते हैं, जिन्हें सारा देश बिना किसी भेदभाव के मनाता है और इनको मनाने का तरीका भी लगभग एक-सा होता है। ये राष्ट्रीय पर्व कहलाते हैं।
स्वतंत्रता दिवस, गणतंत्र दिवस, गांधी जयंती (2 अक्टूबर) को इसी श्रेणी में रखा जा सकता है। इनके अलावा कुछ त्योहार धर्म के आधार पर मनाए जाते हैं। इनमें से कुछ को हिंदू मनाते हैं तो मुसलमान नहीं और मुसलमान मनाते हैं तो सिख या इसाई नहीं, क्योंकि ये उनके धर्म से संबंधित होते हैं। दीपावली, दशहरा, रक्षाबंधन, होली, मकर संक्राति तथा वसंत पंचमी हिंदुओं से संबंधित पर्व या त्योहार माने जाते हैं तो, ईद-उल-जुहा, बकरीद, मोहर्रम आदि मुसलिम धर्म मानने वालों के त्योहार हैं।
बैसाखी. लोहिड़ी सिख धर्म से संबंधित त्योहार हैं तो क्रिसमस ईसाई धर्म मानने वालों का त्योहार है। भारत में पर्व मनाने की परंपरा कितनी पुरानी है, इस संबंध में सही-सही कुछ नहीं कहा जा सकता है। हाँ, त्योहारों में एक बात जरूर हर समय पाई जाती रही है कि इनके मूल में एकता, हर्ष, उल्लास तथा उमंग का भाव निहित रहा है। त्योहारों को मनाने के पीछे कोई-न-कोई घटना या कारण अवश्य रहता है, जो हमें प्रतिवर्ष इसे मनाने के लिए प्रेरित करता है।
उदाहरणार्थ-दीपावली के दिन भगवान रामचंद्रजी के वनवास की अवधि बिताकर अयोध्या वापस आए तो लोगों ने खुश होकर घी के दीप जलाकर उनका स्वागत किया। उसी घटना की याद में आज भी प्रतिवर्ष घी के दीपक जलाकर उस घटना की याद किया जाता है और खुशी प्रकट की जाती है। बाजार के प्रभाव के कारण हमारा जीवन काफी प्रभावित हुआ है, तो हमारे पर्व इसके प्रभाव से कैसे बच पाते। पर्वो पर बाजार का व्यापक प्रभाव पड़ा है।
पहले बच्चे राम लीला करने या खेलने के लिए अपने आसपास उपलब्ध साधनों से धनुष-बाण, गदा आदि बना लेते थे, चेहरे पर प्राकृतिक रंग आदि लगाकर किसी पात्र का अभिनय करते थे, पर आज धनुष-बाण हो या गदा, मुखौटा हो या अन्य सामान सभी कुछ बाजार में उपलब्ध है।
इसी प्रकार दीपावली के पर्व पर मिट्टी के दीप में घी या तेल भरकर दीप जलाया जाता था, बच्चों के खेल-खिलौने भी मिट्टी के बने होते थे, पर आज मिट्टी के दीप की जगह फैसी लाइटें, मोमबत्तियाँ तथा बिजली की रंग-बिरंगी लड़ियों ने ले ली है।
बच्चों के खिलौनों से बाजार भरा है। सब कुछ मशीन निर्मित हैं। रंग-बिरंगी आतिशबाजियाँ कितनी मनमोहक होती हैं. यह बताने की आवश्यकता नहीं है। सब बाजार के बढ़ते प्रभाव का असर है। कोई भी पर्व या त्योहार हो उससे संबंधित काडों से बाजार भरा है। समय की गति और युग-परिवर्तन के कारण युवकों के धार्मिक सोच में काफी बदलाव आया है।
युवाओं का प्राचीन भारतीय संस्कृति के प्रति लगाव कम होता जा रहा है। वे विदेशी संस्कृति, रीति-रिवाज, फैशन को महत्व देने लगे हैं। इस कारण आज हमारे समाज में पाश्चात्य पर्वो को स्वीकृति मिलती जा रही है।
युवाओं का ‘वेलेंटाइन डे’ मनाने के प्रति बढ़ता क्रेज इसक: जीता-जागता उदाहरण है। आज की पीढ़ी को परंपरागत भारतीय त्योहारों की जानकारी भले न हो पर वे पाश्चात्य पर्वो की जरूर जानते हैं। पर्वो-त्योहरों के मनाने के तौर-तरीके और उनके स्वरूप में बदलाव आने का सबसे प्रमुख कारण मनुष्य के पास समय का अभाव है। आज मनुष्य के पास दस दिन तक बैठकर राम-लीला देखने का समय नहीं है।
वे महँगाई की मार से परेशान हैं उनके लिए दो जून की रोटी जुटाना मुश्किल हो गया है। जिनके पास मूलभूत सुविधाएँ हैं वे सुखमय जीवन जीने की लालसा में दिन-रात व्यस्त रहते हैं और पर्व-त्योहार के लिए भी मुश्किल से समय निकाल पाते हैं। बदलते समय के साथ-साथ पर्व-त्योहार के स्वरूप में बदलाव आया है। महँगाई, समयाभाव, बाजार के बढ़ते प्रभाव ने इन्हें प्रभावित जरूर किया है, पर इनकी उपयोगिता हमेशा बनी रहेगी। इनके बिना जीवन सूखे रेगिस्तान के समान हो जाएगा।
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पर्वों का बदलता स्वरूप (Parvon Ka Badalata Svaroop) – Changing nature of festivals
भारत में आए दिन कोई-न-कोई पर्व और त्योहार मना लिया जाता है। यहाँ कभी महापुरुषों की प्रेरणाप्रद पुण्यतिथियों तथा जयंतियों का आयोजन किया जाता है तो कभी ऋतु मौसम, महीने के आगमन और प्रस्थान पर पर्व मनाए जाते हैं। साथ ही धार्मिक तथा क्षेत्रीय पर्व एवं त्योहर भी मनाए जाते हैं।
इनमें से राष्ट्रीय और धार्मिक पर्व विशेष महत्व रखते हैं। कुछ पर्व ऐसे होते हैं, जिन्हें सारा देश बिना किसी भेदभाव के मनाता है और इनको मनाने का तरीका भी लगभग एक-सा होता है। ये राष्ट्रीय पर्व कहलाते हैं।
स्वतंत्रता दिवस, गणतंत्र दिवस, गांधी जयंती (2 अक्टूबर) को इसी श्रेणी में रखा जा सकता है। इनके अलावा कुछ त्योहार धर्म के आधार पर मनाए जाते हैं। इनमें से कुछ को हिंदू मनाते हैं तो मुसलमान नहीं और मुसलमान मनाते हैं तो सिख या इसाई नहीं, क्योंकि ये उनके धर्म से संबंधित होते हैं। दीपावली, दशहरा, रक्षाबंधन, होली, मकर संक्राति तथा वसंत पंचमी हिंदुओं से संबंधित पर्व या त्योहार माने जाते हैं तो, ईद-उल-जुहा, बकरीद, मोहर्रम आदि मुसलिम धर्म मानने वालों के त्योहार हैं।
बैसाखी. लोहिड़ी सिख धर्म से संबंधित त्योहार हैं तो क्रिसमस ईसाई धर्म मानने वालों का त्योहार है। भारत में पर्व मनाने की परंपरा कितनी पुरानी है, इस संबंध में सही-सही कुछ नहीं कहा जा सकता है। हाँ, त्योहारों में एक बात जरूर हर समय पाई जाती रही है कि इनके मूल में एकता, हर्ष, उल्लास तथा उमंग का भाव निहित रहा है। त्योहारों को मनाने के पीछे कोई-न-कोई घटना या कारण अवश्य रहता है, जो हमें प्रतिवर्ष इसे मनाने के लिए प्रेरित करता है।
उदाहरणार्थ-दीपावली के दिन भगवान रामचंद्रजी के वनवास की अवधि बिताकर अयोध्या वापस आए तो लोगों ने खुश होकर घी के दीप जलाकर उनका स्वागत किया। उसी घटना की याद में आज भी प्रतिवर्ष घी के दीपक जलाकर उस घटना की याद किया जाता है और खुशी प्रकट की जाती है। बाजार के प्रभाव के कारण हमारा जीवन काफी प्रभावित हुआ है, तो हमारे पर्व इसके प्रभाव से कैसे बच पाते। पर्वो पर बाजार का व्यापक प्रभाव पड़ा है।
पहले बच्चे राम लीला करने या खेलने के लिए अपने आसपास उपलब्ध साधनों से धनुष-बाण, गदा आदि बना लेते थे, चेहरे पर प्राकृतिक रंग आदि लगाकर किसी पात्र का अभिनय करते थे, पर आज धनुष-बाण हो या गदा, मुखौटा हो या अन्य सामान सभी कुछ बाजार में उपलब्ध है।
इसी प्रकार दीपावली के पर्व पर मिट्टी के दीप में घी या तेल भरकर दीप जलाया जाता था, बच्चों के खेल-खिलौने भी मिट्टी के बने होते थे, पर आज मिट्टी के दीप की जगह फैसी लाइटें, मोमबत्तियाँ तथा बिजली की रंग-बिरंगी लड़ियों ने ले ली है।
बच्चों के खिलौनों से बाजार भरा है। सब कुछ मशीन निर्मित हैं। रंग-बिरंगी आतिशबाजियाँ कितनी मनमोहक होती हैं. यह बताने की आवश्यकता नहीं है। सब बाजार के बढ़ते प्रभाव का असर है। कोई भी पर्व या त्योहार हो उससे संबंधित काडों से बाजार भरा है। समय की गति और युग-परिवर्तन के कारण युवकों के धार्मिक सोच में काफी बदलाव आया है।
युवाओं का प्राचीन भारतीय संस्कृति के प्रति लगाव कम होता जा रहा है। वे विदेशी संस्कृति, रीति-रिवाज, फैशन को महत्व देने लगे हैं। इस कारण आज हमारे समाज में पाश्चात्य पर्वो को स्वीकृति मिलती जा रही है।
युवाओं का ‘वेलेंटाइन डे’ मनाने के प्रति बढ़ता क्रेज इसक: जीता-जागता उदाहरण है। आज की पीढ़ी को परंपरागत भारतीय त्योहारों की जानकारी भले न हो पर वे पाश्चात्य पर्वो की जरूर जानते हैं। पर्वो-त्योहरों के मनाने के तौर-तरीके और उनके स्वरूप में बदलाव आने का सबसे प्रमुख कारण मनुष्य के पास समय का अभाव है। आज मनुष्य के पास दस दिन तक बैठकर राम-लीला देखने का समय नहीं है।
वे महँगाई की मार से परेशान हैं उनके लिए दो जून की रोटी जुटाना मुश्किल हो गया है। जिनके पास मूलभूत सुविधाएँ हैं वे सुखमय जीवन जीने की लालसा में दिन-रात व्यस्त रहते हैं और पर्व-त्योहार के लिए भी मुश्किल से समय निकाल पाते हैं। बदलते समय के साथ-साथ पर्व-त्योहार के स्वरूप में बदलाव आया है। महँगाई, समयाभाव, बाजार के बढ़ते प्रभाव ने इन्हें प्रभावित जरूर किया है, पर इनकी उपयोगिता हमेशा बनी रहेगी। इनके बिना जीवन सूखे रेगिस्तान के समान हो जाएगा।