परिवर्तनशील अनुपातों का नियम संबंधित है -अल्पकाल एवं दीर्घ काल दोनों से, दीर्घकाल से ,अल्पकाल से,
इनमें से कोई नहीं
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किसी वस्तु की उत्पादन-मात्रा इसके निर्माण में प्रयुक्त साधनों की मात्रा पर निर्भर करती है, जिसे गणित की भाषा में इस प्रकार व्यक्त किया जाता है, X = f(a,b,c) अर्थात् वस्तु X की उत्पादन-मात्रा a, b, c साधनों की मात्रा पर निर्भर करती है । a, b, c साधनों का X वस्तु से संबंध उत्पाद की प्रकृति के अनुसार होता है। उदाहरण के लिए, कृषि-उत्पादन में भूमि का महत्व अधिक होता है, जबकि सिलाई की मशीन के निर्माण में कुशल श्रम का ।
यदि उत्पत्ति के साधन बड़े परिमाण में जुटाए जाएं, तो वस्तु का उत्पादन बड़ी मात्रा में होगा और यदि उत्पत्ति के साधन कम परिमाण में जुटाए जाएं, तो वस्तु का उत्पादन थोड़ी मात्रा में होगा। यदि उद्यमी उत्पादन का परिमाण बढ़ाना चाहें, तो उसके सामने दो विकल्प होते हैं- (क) उत्पत्ति के सभी साधनों की मात्रा बढ़ाना अथवा (ख) कुछ साधनों की मात्रा बढ़ाना और शेष साधनों की मात्रा स्थिर रखना। उत्पादन के साथ साधनों का जो संबंध होता है, उसी को ‘प्रतिफल का नियम' कहा जाता है।
नियम की व्याख्या
‘परिवर्तनीय अनुपात का नियम' अर्थशास्त्र का बुनियादी, महत्वपूर्ण और व्यापक नियम है । नियम इस व्यावहारिक सत्य पर आधारित है कि व्यवहार में उत्पत्ति के कुछ साधनों की मात्रा इच्छानुसार घटाई-बढ़ाई नहीं जा सकती। अतः नियम इस अतिरिक्त उत्पादन-मात्रा की ओर संकेत करता है जो कुछ साधनों की मात्रा स्थिर रखते हुए (परिवर्तनशील) साधन की मात्रा बढ़ाने से प्राप्त होता है । परिवर्तनीय अनुपात के नियम को 'आनुपातिकता का नियम' भी कहा जाता है; क्योंकि यह बताता हैं कि साधनों का अनुपात बढ़ाने का उत्पादन-मात्रा पर क्या प्रभाव पड़ता है। इस नियम को ‘प्रतिफल का नियम' भी कहा जाता है, क्योंकि यह बताता है कि जब कुछ
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