परियोजना कार्य - बिहारी कवी के विषय में जानकारी एकत्रित कीजिये और परयोजना पुस्तका में लगाइए।
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जीवन-परिचय जन्म – सन् 1595 जन्म स्थान – ग्वालियर के पास बसुआ गोविंदपुर नामक स्थान। पिता – केशवराय शिक्षा – आठ वर्ष की उम्र में ग्वालियर से ओरछा आना और संस्कृत काव्य का अध्ययन। केशवदास से काव्य शास्त्र की दीक्षा। आगरा आकर फारसी का अध्ययन करना। रहीम द्वारा उनकी रचनाएँ सुनना और पुरस्कार देना। राजाश्रय – शाहजहाँ के अलावा राजस्थान, जोधपुर तथा बूंदी जैसी रियासतों से शासकीय वृत्ति। जयपुर के महाराज जय सिंह के दरबारी कवि और प्रतिदिन एक अशरफ़ी की प्राप्ति। देहांत – सन् 1663 ई० रचनाएँ – बिहारी सतसई इसमें 700 दोहे हैं। काव्यगत विशेषताएँ – श्रृंगारिक दोहों के लिए प्रसिद्ध। 1. भावपक्ष – आश्रयदाताओं को प्रसन्न करने के लिए नायक-नायिकाओं की प्रेम-कीड़ाओं और सुंदरता का चमत्कारपूर्ण वर्णन। नीति एवं भक्ति संबंधी दोहों की रचना। 2. कलापक्ष – कम शब्दों में अधिक कहने में महारत हासिल। इसके लिए प्रसिद्ध दोहा- o सतसैया के दोहरे, ज्यों नावक के तीर । देखन में छोटे लगे, घाव करे गंभीर ।। o कहत, नटत, रीझत, खिझत, मिलत, खिलत, लजियात । भरे भौन में करत हैं नैननु हीं सब बात ।। कई अलंकारों का एक साथ प्रयोग – सोहत ओढ़े पीतु पटु स्याम, सलौनैं गात । मनौ नीलमनि-सैल पर आतपु पर्योो प्रभात
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बिहारीलाल का जन्म संवत् 1603 ई. ग्वालियर में हुआ। वे जाति के माथुर चौबे (चतुर्वेदी) थे। उनके पिता का नाम केशवराय था। जब बिहारी 8 वर्ष के थे तब इनके पिता इन्हे ओरछा ले आये तथा उनका बचपन बुंदेलखंड में बीता। इनके गुरु नरहरिदास थे और युवावस्था ससुराल मथुरा में व्यतीत हुई, जैसे की निम्न दोहे से प्रकट है -
जन्म ग्वालियर जानिये खंड बुंदेले बाल।
तरुनाई आई सुघर मथुरा बसि ससुराल॥
जयपुर-नरेश सवाई राजा जयसिंह अपनी नयी रानी के प्रेम में इतने डूबे रहते थे कि वे महल से बाहर भी नहीं निकलते थे और राज-काज की ओर कोई ध्यान नहीं देते थे। मंत्री आदि लोग इससे बड़े चिंतित थे, किंतु राजा से कुछ कहने को शक्ति किसी में न थी। बिहारी ने यह कार्य अपने ऊपर लिया। उन्होंने निम्नलिखित दोहा किसी प्रकार राजा के पास पहुंचाया -
नहिं पराग नहिं मधुर मधु, नहिं विकास यहि काल।
अली कली ही सौं बंध्यो, आगे कौन हवाल॥[1]
इस दोहे ने राजा पर मंत्र जैसा कार्य किया। वे रानी के प्रेम-पाश से मुक्त होकर पुनः अपना राज-काज संभालने लगे। वे बिहारी की काव्य कुशलता से इतने प्रभावित हुए कि उन्होंने बिहारी से और भी दोहे रचने के लिए कहा और प्रति दोहे पर एक स्वर्ण मुद्रा देने का वचन दिया। बिहारी जयपुर नरेश के दरबार में रहकर काव्य-रचना करने लगे, वहां उन्हें पर्याप्त धन और यश मिला।
बिहारी की एकमात्र रचना सतसई (सप्तशती) है। यह मुक्तक काव्य है। इसमें 719 दोहे संकलित हैं। कतिपय दोहे संदिग्ध भी माने जाते हैं। सभी दोहे सुंदर और सराहनीय हैं तथापि तनिक विचारपूर्वक बारीकी से देखने पर लगभग 200 दोहे अति उत्कृष्ट ठहरते हैं। 'सतसई' में ब्रजभाषा का प्रयोग हुआ है। ब्रजभाषा ही उस समय उत्तर भारत की एक सर्वमान्य तथा सर्व-कवि-सम्मानित ग्राह्य काव्यभाषा के रूप में प्रतिष्ठित थी। इसका प्रचार और प्रसार इतना हो चुका था कि इसमें अनेकरूपता का आ जाना सहज संभव था। बिहारी ने इसे एकरूपता के साथ रखने का स्तुत्य सफल प्रयास किया और इसे निश्चित साहित्यिक रूप में रख दिया। इससे ब्रजभाषा मँजकर निखर उठी। इस
सतसई को तीन मुख्य भागों में विभक्त कर सकते हैं- नीति विषयक, भक्ति और अध्यात्म भावपरक, तथा । श्रृंगारपरक। इनमें से श्रृंगारात्मक भाग अधिक है। कला-चमत्कार सर्वत्र चातुर्य के साथ प्राप्त होता है।
श्रृंगारात्मक भाग में रूपांग सौंदर्य, सौंदर्योपकरण, नायक-नायिकाभेद तथा हाव, भाव, विलास का कथन किया गया है। नायक-नायिका निरूपण भी मुख्त: तीन रूपों में मिलता है- प्रथम रूप में नायक कृष्ण और नायिका राधा है। इनका चित्रण करते हुए धार्मिक और दार्शनिक विचार को ध्यान में रखा गया है। इसलिए इसमें गूढ़ार्थ व्यंजना प्रधान है, और आध्यात्मिक रहस्य तथा धर्म-मर्म निहित है; द्वितीय रूप में राधा और कृष्ण का स्पष्ट उल्लेख नहीं किया गया किंतु उनके आभास की प्रदीप्ति दी गई है और कल्पनादर्श रूप रौचिर्य रचकर आदर्श चित्र विचित्र व्यंजना के साथ प्रस्तुत किए गए हैं। इससे इसमें लौकिक वासना का विलास नहीं मिलता। तृतीय रूप में लोकसंभव नायक नायिका का स्पष्ट चित्र है। इसमें भी कल्पना कला कौशल और कवि परंपरागत आदर्शों का पुट पूर्ण रूप में प्राप्त होता है। नितांत लौकिक रूप बहुत ही न्यून और बहुत ही कम है।
'सतसई' के मुक्तक दोहों को क्रमबद्ध करने के प्रयास किए गए हैं। २५ प्रकार के क्रम कहे जाते हैं जिनमें से १४ प्रकार के क्रम देखे गए हैं, शेष ११ प्रकार के क्रम जिन टीकाओं में हैं, वे प्राप्त नहीं। किंतु कोई निश्चित क्रम नहीं दिया जा सका। वस्तुत: बात यह जान पड़ती है कि ये दोहे समय-समय पर मुक्तक रूप में ही रचे गए, फिर चुन चुनकर एकत्रित कर संकलित कर दिए गए। केवल मंगलाचरणात्मक दोहों के विषय में भी इसी से विचार वैचित्य है। यदि 'मेरी भव बाधा हरौ' इस दोहे को प्रथम मंगलाचरणात्मक अर्थात् केवल राधोपासक होने का विचार स्पष्ट होता है और यदि 'मोर मुकुट कटि काछिनि'-इस दोहे को लें, तो केवल एक विशेष बानकवाली कृष्णमूर्ति ही बिहारी की अभीष्टोपास्य मूर्ति मुख्य ठहरती हैं - बिहारी वस्तुत: कृष्णोपासक थे, यह स्पष्ट है।
सतसई के देखने से स्पष्ट होता है कि बिहारी के लिए काव्य में रस और अलंकार चातुर्य चमत्कार तथा कथन कौशल दोनों ही अनिवार्य और आवश्यक हैं। उनके दोहों को दो वर्गों में इस प्रकार भी रख सकते हैं, एक वर्ग में वे दोहे आएँगें जिनमें रस रौचिर्य का प्राबल्य है और रसात्मकता का ही विशेष ध्यान रखा गया है। अलंकार चमत्कार इनमें भी है किंतु विशेष प्रधान नहीं, वरन् रस परिपोषकता और भावोत्कर्षकता के लिए ही सहायक रूप में यह है।
दूसरे वर्ग में वे दोहे हैं जिनमें रसात्मकता को विशेषता नहीं दी गई वरन् अलंकार चमत्कार और वचनचातुरी अथवा कथन-कलाकौशल को ही प्रधानता दी गई है। किसी विशेष अलंकार को उक्तिवैचित्र्य के साथ सफलता से निबाहा गया है। इस प्रकार देखते हुए भी यह मानना पड़ता है कि अलंकार चमत्कार को कहीं नितांत भुलाया भी नहीं गया। रस को उत्कर्ष देते हुए भी अलंकार कौशल का अपकर्ष भी नहीं होने दिया गया। इस प्रकार कहना चाहिए कि बिहारी रसालंकारसिद्ध कवि थे; रससिद्ध ही नहीं।