पर्यावरण संकट पर निबंध लिखिए। (200 शब्दों में)
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पर्यावरण संकट का प्रथम व सबसे बड़ा कारण उच्च उपभोक्तावादी संस्कृति है। यह उपभोक्तावादी संस्कृति ऐसे प्रलोभनकारी उद्योग को विकसित करती है जो कि सेवाओं व वस्तुओं से सम्बन्धित अभीष्ट इच्छा की पूर्ति करता है। इस उपभोक्ता संस्कृति का मूल उद्देश्य इसमें निहित होता है कि वह अधिक से अधिक मात्रा में अपनी जैविक आवश्यकताओं की पूर्ति हेतु पर्यावरण संसाधनों का दोहन कर सके। वह इसे जन्मजात अधिकार के रूप में देखता है तथा भौगोलिक अध्येता भी इस दिशा में पर्यावरण व भविष्यवाद की द्वन्द्वता को स्वीकार करते हैं क्योंकि व्यक्तियों की आर्थिक आत्मीयता, प्राकृतिक उद्देश्यों को नकारती है।
दूसरा कारण वनों का दिनों-दिन कम होना है। दुनिया के कुल भू-क्षेत्र का करीब 30 प्रतिशत वन क्षेत्र है। दुनिया भर में 9.8 अरब एकड़ में फैले वन क्षेत्र का लगभग दो-तिहाई भाग रूस, ब्राजील, कनाडा, अमेरिका, चीन, ऑस्ट्रेलिया, कांगो, इण्डोनेशिया, अंगोला, तथा पेरू जैसे 10 देशों में सिमटा हुआ है। 20वीं शताब्दी के आखिरी दशक में ही प्रति वर्ष करीब 3.8 करोड़ एकड़ वन क्षेत्र समाप्त हुआ। लाख प्रयत्नों के बावजूद 2.4 करोड़ एकड़ वन क्षेत्र प्रति वर्ष समाप्त होता आ रहा है। यह रफ्तार रही तो आने वाले 40-50 वर्षों में धरती से पेड़-पौधों का नामो-निशान मिट जायेगा। इन वनों की विनाश लीला ने लोगों के जीवन को प्रभावित किया है।
तीसरा कारण जब प्राकृतिक स्रोत सीमित हो तथा जनसंख्या सीमित हो तो यह संसाधन का कार्य करती है लेकिन इनके मध्य असन्तुलन, पर्यावरण के लिए संकट है। जनसंख्या जब बिना प्रभावकारी राजनीतिक, आर्थिक नीति के तीव्र गति से बढ़ती है तब साधन सीमित हो जाते हैं तथा भोजन, स्वास्थ्य सेवाओं में कमी तथा साथ ही साथ जीवन प्रत्याशा में कमी, मृत्यु दर में वृद्धि होती है। जनसंख्या के दबाव में वनों का दोहन, भूमि का अधिक अधिग्रहण, ओजोन क्षरण, जैव विविधता में क्षरण, ग्रीन हाउस गैसों में वृद्धि, जल प्लावन, लवणीकरण, उसरीकरण, अम्ल वर्षा की भूमिका बढ़ती जाती है।
चौथा कारण जैसे-जैसे समाज में और विशेषतः प्रौद्योगिकी का विकास हो रहा है वैसे-वैसे मनुष्य और पर्यावरण के मध्य अन्तःक्रिया ने एक खतरनाक मोड़ ले लिया है। वायु, जल, वायुमण्डल, वन, नदियाँ, पौधे और प्रकृति के अनेक तत्वों को प्रौद्योगिकी क्षमता ने प्रभावित किया है। क्योंकि इन्हीं की बदौलत प्राकृतिक संसाधनों का दोहन हुआ है और इनके अति दोहन ने पर्यावरण के सामंजस्य को विचलित कर दिया है। आज स्वस्थ्य सुरक्षा भावना की कमी जैसी समस्याएँ प्रादुर्भूत हुई हैं जो पूर्णतया औद्योगिक विकास का प्रतिफल है। इस प्रौद्योगिकी विकास की बदौलत ही आज हम जेनेटिकली मॉडीफाइड खाद्यान्न पर निर्भर हो गये हैं। इसने मानव स्वास्थ्य को खराब कर दिया है व शारीरिक तथा मानसिक असुरक्षा तन्त्र का विकास किया है। इस प्रौद्योगिकी विकास ने रासायनिक स्राव के माध्यम से वातावरण को प्रदूषित किया है।
पाँचवां कारण जनसंख्या तथा प्रौद्योगिकी विकास द्वारा प्रादुर्भूत प्रदूषण के स्रोतों के साथ पर्यावरण के संकट में मानवीय कारण को अनदेखा नहीं किया जा सकता। पर्यावरण की स्वच्छता के बारे में नगरवासियों तथा उद्योगपतियों की लापरवाही, सूचना का अभाव, स्थानीय अधिकारों की पर्यावरण की सुरक्षा के लिए प्रामाणिक मानदण्डों के प्रति लापरवाही, उपलब्ध जमीन पर निहित स्वार्थ समूहों का आधिपत्य और जन-सुविधाओं जैसे कि शौचालय, गटर, कूड़ा-करकट इकट्ठा करने की पेटियाँ इत्यादि की पंगु स्थिति वातावरण में इतना प्रदूषण फैलाती हैं कि स्वच्छ पर्यावरण का अभाव हो जाता है तथा स्वस्थ रहन-सहन एक प्रकार से चुनौती बन जाता है।
इसका प्रभाव भी भयावह है। बढ़ती मानवीय आवश्यकताओं के कारण औद्योगीकरण, परिवहन, खनन (कोयला, कच्चा तेल) में वृद्धि तथा ईंधन हेतु लकड़ियों के प्रयोग ने वनों के विनाश को बढ़ाया है विश्व की करीब 2.5 अरब आबादी अभी भी आधुनिक ऊर्जा सेवाओं से वंचित है। दक्षिण और दक्षिण-पूर्व एशिया के लगभग 2 अरब लोग अब भी ईंधन के रूप में लकड़ी का उपयोग करते हैं जिससे वनों का विनाश बढ़ा है। सम्पूर्ण ऊर्जा उत्पादन और उपभोग में अब भी 20 फीसदी हिस्सा जीवाश्म ईंधन का ही है। जीवाश्म ईंधन के उपभोग की सालाना वृद्धि दर विकसित देशों में 1.5 और विकासशील देशों में 3.6 प्रतिशत रहेगी। यानी कुल 2 प्रतिशत वृद्धि मानी जाये तो 2055 में आज के मुकाबले तीन गुना जीवाश्म ईंधन की जरूरत होगी। यह एक बड़े खतरे का संकेत है।
ऐसा वैश्विक स्तर पर कार्य करने वाली संस्थाओं का आँकलन है कि इस ईंधन से निकलने वाली कार्बन डाइ-ऑक्साइड में वृद्धि के कारण अनेक प्रकार की समस्याएँ उत्पन्न हो जायेंगी। पहाड़ों, ग्लोशियरों, अंटार्कटिक व ध्रुवों की बर्फ पिघलेगी जिससे समुद्र के जल स्तर में वृद्धि होगी, परिणामस्वरूप अनेक तटीय देश व द्वितीय देश जलमग्न हो जायेंगे। इन जीवाश्म ईंधनों के जलने से सल्फर डाइ-ऑक्साइड व नाइट्रोजन डाइ-ऑक्साइड गैस में भी वृद्धि होती है जो कि अम्लीय वर्षा का कारण होती है। इससे मृदा, वनस्पति, फसलें, इमारत, रेल-पटरियों, पुलों में क्षरण होता है। ताजमहल का क्षरण इसी की देन है। स्वीडन, नार्वे और अमेरिका इस अम्लीय वर्षा से सबसे ज्यादा प्रभावित है। अमेरिका के वर्जिनिया में हुयी अम्लीय वर्षा ने तो वहाँ के सम्पूर्ण वन प्रदेश को ही नष्ट कर दिया
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Explanation:
प्राकृतिक पर्यावरण की महत्ता अद्यतन समाज में, स्वयं एक प्रश्नचिन्ह या मुद्दे बनकर उभर रही है। अनवरत बढ़ती जन चेतना वायु व जल प्रदूषण, गैस दुष्प्रभाव, ओजोन परत की समस्या, कचरा व्वस्थापन, आणविक ऊर्जा, अति जनसंख्या तथा तेल रिसाव इत्यादि से सभी समस्याएँ जीवन की गुणवत्ता व ब्रह्माण्ड में पृथ्वी के अस्तित्व का सम्भावित चिन्ह प्रस्तुत करती है। पर्यावरण जो कि पृथ्वी पर पाये जाने वाले जीवधारियों के आवरण या खोल के सम्बन्धों को प्रतिपादित करता है, विविध प्रकार से जीवधारियों को प्रभावित कर स्वयं जीवधारियों से प्रभावित भी होता है। यह विकास एवं विनाश की एक समग्रकारी व्यवस्था है जो सन्तुलन को स्वयं प्राकृतिक प्रकार्यों के माध्यम से बनाये रखती है, लेकिन यह सन्तुलन आज समाप्त प्रायः है। पर्यावरण अनेक संकटों से ग्रस्त है।
अगर एक नजर पर्यावरण संकट पर डालें तो स्पष्ट है कि विश्व की करीब एक चौथायी जमीन बंजर हो चुकी है और यही रफ्तार रही तो सूखा प्रभावित क्षेत्र की करीब 70 प्रतिशत जमीन कुछ ही समय में बंजर हो जायेगी। यह खतरा इतना भयावह है कि इससे विश्व के 100 देशों की एक अरब से ज्यादा आबादी का जीवन संकट में पड़ जायेगी। पर्वतों से विश्व की आधी आबादी को पानी मिलता है। हिमखण्डों के पिघलने, जंगलों की कटायी और भूमि के गलत इस्तेमाल के चलते पर्वतों का पर्यावरण तन्त्र खतरे में है। विश्व का आधे से अधिक समुद्र तटीय पर्यावरण तन्त्र गड़बड़ा चुका है। यह गड़बड़ी यूरोप में 80 प्रतिशत और एशिया में 70 प्रतिशत तक पहुँच चुकी है।
मछली पालन से विश्व के करीब 40 करोड़ लोगों की आजीविका चलती है। इस समय दुनिया करीब 75 प्रतिशत मत्स्य क्षेत्र का दोहन कर रही है, जिससे मछली आपूर्ति का संकट बरकरार है। दुनिया भर की करीब एक चौथायी मूंगे की चट्टानें और नष्ट हो जायेगी। यही रफ्तार रही तो आने वाले 10 वर्षों में 20-30 प्रतिशत चट्टानें और नष्ट हो जायेंगी। इन चट्टानों के न होने से समुद्री खाद्य प्रणाली की कड़ी टूट जायेगी और सारे समुद्री जीवों का जीवन संकट में होगा। आँकड़े बताते हैं कि हाल के दिनों में वायुमण्डल में मिलने वाली कार्बन डाइ-ऑक्साइड गैस की मात्रा तेजी से बढ़ी है। वायुमण्डल में जाकर यह गैस 100 वर्षों तक ज्यों की त्यों बनी रहेगी जो काफी खतरनाक साबित हो सकती है।
वर्ष 1900 के मुकाबले समुद्री तल करीब 10 से 20 सेण्टी मीटर के बीच बढ़ चुका है। इसके कारण हवाओं की मार से करीब 4.6 करोड़ लोग प्रति वर्ष प्रभावित होते हैं। यदि समुद्र तल बढ़कर 50 सेण्टी मीटर हो गया तो इसकी चपेट में विश्व की 10 करोड़ आबादी आ जायेगी। पर्यावरण के नष्ट होने से करीब 800 करोड़ से ऊपर प्रजातियाँ विलुप्त हो चुकी हैं और यह सिलसिला जारी रहा तो करीब 11000 प्रजातियों के विलुप्त होने का खतरा बढ़ जायेगा।
सामाजिक संकट के रूप में पर्यावरण संकट
पर्यावरण संकट एक प्रकार से अपने विविध स्वरूपों के कारण सामाजिक संकट है जो कि सामाजिक संगठन की संरचना में परिवर्तन की वजह से अभिलक्षित होता है। यह सामाजिक संकट क्यों है? इसका प्रथम कारण यह है कि यह सामाजिक रूप से उत्पन्न होता है। जीवन स्तर को व्यवस्थित करने के लिए व्यक्तियों द्वारा किये गये कार्यों व व्यवसाय उद्योग, सरकारी व्यवसायिक व राजनीतिक उद्देश्यों को पूरा करने हेतु किये गये कार्यों से यह संकट उत्पन्न होता है।
दूसरा कारण यह है कि इसका संभावित समय में नकारात्मक परिणाम मानव प्राणियों तथा अन्य जीवों, जानवरों व पौधों पर पड़ता है। यह प्रभाव वैश्विक होता है। इसका तीसरा कारण है कि इस समस्या का निर्धाकर प्रभाव वैश्विक है लेकिन शक्तिशाली राज्य व संघ चतुरायी पूर्वक इस सार्वभौमिक समस्या को नकारते हैं। औद्योगीकृत पश्चिमी देश अपने पर्यावरणीय कचरे को तृतीय विश्व के देशों में स्थानान्तरित कर संकट का सारा श्रेय उन पर मढ़ देते हैं। उपयुक्त नीति-नियामकों की कमी व विकास की निम्न सीमा के कारण तृतीय विश्व के समाज में यह भयावह संकट का रूप धारण करता है। हालाँकि अन्तरराष्ट्रीय परिदृश्य में पर्यावरण संकट एक सामाजिक समस्या न होकर एक राजनीतिक, आर्थिक व वर्ग मुद्दे के रूप में प्रचलित है।