Political Science, asked by kamleshverma2230, 6 months ago


पर्यावरण तथा संस्कृति को विस्तार से लिखिए।​

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Answered by aditya35376
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Answer:

प्रकृति के गर्भ से उत्पन्न मानव उसकी सर्वोत्कृष्ट कृति है। किंतु प्रकृति का यह विशिष्ट जीव आज एक विचित्र-सी स्थिति में खड़ा है। विकास की सीमाओं को लांघता हुआ वह कहां से कहां पहुंच गया। विकास की यह गति प्रारंभिक काल में धीमी थी, किंतु आज़ आश्चर्यचकित कर देने वाली इसकी गति अब बेकाबू जा रही है। किसी भी देश या समाज की सभ्यता-संस्कृति उसकी प्रतिष्ठा का प्रतीक है। इसी सभ्यता-संस्कृति का एक आवश्यक अंग होता है पर्यावरण। पर्यावरण का कुछ अंश हमें प्रकृति से हस्तगत होता है और कुछ हम स्वयं निर्माण करते हैं।

प्रारंभ में मनुष्य को पूर्णत: पर्यावरण पर निर्भर रहना पड़ता था, किंतु धीरे-धीरे बुद्धि-संपन्न मनुष्य ने अपनी बढ़ती हुई आवश्यकताओं के अनुरूप अपनी जीवन-शैली को भी नियंत्रित किया। शनै: - शनै: पर्यावरण को भी नियंत्रित करने का प्रयास आरंभ हुआ। अब तो स्थिति यह है कि मनुष्य प्रकृति का स्वामी बन बैठा है और निरंतर उसके शोषण में लगा हुआ है। जबकि भारतीय दृष्टिकोण प्रकृति पर विजय पाने का नहीं, बल्कि उसके संरक्षण और उसके प्रति श्रद्धा का रहा है। वस्तुत: भारत के सांस्कृतिक आदर्श और परंपराओं का आधार अध्यात्म है। देश की अथाह प्राकृतिक संपदा ने यहां के मनीषियों को अपने पर्यावरण के प्रति भावनात्मक रूप से अत्यंत संवेदनशील बना दिया था। जहां भावनात्मक संवेदनशील होती है, वहां बौद्धिक जिज्ञासा और सौंदर्य-बोध का जन्म होता है। एक सुसंस्कृत समाज के लिए ये दोनों ही आवश्यक तत्व है। बौद्धिक जिज्ञासा ज्ञान, चेतना तथा मूल्यों का विकास और विस्तार करती है, जब कि सौंदर्य-बोध से सृजनात्मक ललित-कलाओं का विकास होता है।

भारतीय प्रज्ञा के अनुसार मनुष्य प्रकृति का स्वामी नहीं, उसकी संतान है। अपने पर्यावरण के प्रति ऋषि-मुनियों की भावुकता और उनका अनुराग इस धारणा को पुष्ट करता है। इसकी झलक वेद-उपनिषदों एवं अन्य पौराणिक साहित्यों में भी मिलती है। ऋग्वेद के पृथ्वी सूक्त में मानव और पृथ्वी के स्नेह बंधन अनेक रूपों में वर्णित है। 'माता भूमि: पुत्रोSहं पृथिव्याः’, ‘विश्वंभरा बसुधानी प्रतिष्ठा हरिण्य वक्षा जगतो निवेशिनी'(ऋग्वेद 12.1.6.) इत्यादि ऐसी अनुभूति के द्योतक है। संतानोत्पत्ति से लेकर पालन-पोषण और संसार को अपने आसमानी आंचल से ढंके रखने के कारण प्रकृति को मनुष्य ने स्त्री रूप में देखा है। भूमि की उर्वरा शक्ति से प्रेरित होकर श्रद्धा और उपासना भाव की विशिष्टतम परिणति मातृ-भूमि की अवधारणा में हुई है। अथर्ववेद की (12.1.14) ऋचा में अक ओर उस शक्ति से अपार सुख पाने की आशा है तो दूसरी ओर उसकी रक्षा करने का भाव छलक उठता है।

वेद की अनेक ऋचाओं में प्रकृति के विभिन्न तत्वों - सूर्य, चांद, तारे, आकाश, पृथ्वी, जाल, अग्नि, वनस्पति इत्यादि की देव रूपों में उपासना की गई है। ये ऋचाएं प्रकृति एवं पर्यावरण के प्रति आभार व्यक्त करने का माध्यम है और इनमें आध्यात्मिक अनुभूतियां भी निहित हैं।

पर्यावरण में उपस्थित सभी तत्वों का आपस में विशेष सामंजस्य होता है, जो संपूर्ण प्रकृति में संतुलन बनाए रखता है। उन तत्वों के प्रति लापरवाह होने पर उनकी संगति बिगड़ जाती है और संतुलन भंग हो जाता है। आधुनिक युग में, एक ओर तो मानव विकास के शीर्ष पर पहुंच चुका है, दूसरी ओर अनेक प्राकृतिक विसंगतियां उत्पन्न हो गई हैं। फलतः प्रकृति अपना संतुलन खोती जा रही है।

कितना बड़ा विरोधाभास उत्पन्न हो गया है युगों के अंतराल में! कहां तो हमारे पूर्वज प्रकृति के प्रति इतने संवदेनशील थे कि श्रद्धा और आभार व्यक्त करते अघाते नहीं थे और कहां अब उनका वंशज, आज का मनुष्य मां के रूप में पूज्या प्रकृति और अपने आश्रय पर्यावरण के प्रति निर्दयता और बर्बरता का एक भी अवसर नहीं चूकता। प्रकृति भी अपने कुपुत्रों के दुर्व्यवहार से ऊब गई है, उसकी सहिष्णुता समाप्त हो गई है।

पर्यावरण के साथ मनुष्य का दुर्व्यवहार विकास का चोला पहनकर आया। भारत की सभ्यता और संस्कृति तो अति प्राचीन है और यह देश अपने विकास के अनेक स्वर्ण युग देख चुका है।

नि:संदेह इसे अपनी मूर्खताओं का भी मूल्य चुकाना पड़ा है - कभी आंभीक जैसे विद्वेषी राजाओं के कारण तो कभी ईस्ट इंडिया कंपनी के माध्यम से अपने लालच को संतुष्ट करने के क्रम में परतंत्र होकर। किंतु नए सभ्य और तथाकथित सुसंस्कृत हुए देशों को आधुनिक युग आते-आते विकास के अवसर मिलने लगे। विज्ञान का 'जिन्न' उनके हाथ जो लग गया था! यह सही है कि विज्ञान ने मानव जाति का बड़ा उपकार किया है, किंतु यदि ‘अलादीन का चिराग' किसी पागल या निर्दयी के हाथ लग जाए तो बेचारा ‘जिन्न' क्या करे? विज्ञान के साथ भी कुछ ऐसा ही हुआ है। स्वार्थी लोगों ने आधुनिक विकास के नाम पर इसका दुरुपयोग किया है। इसलिए उसका जितना हितकर प्रभाव हुआ, उससे कहीं अधिक उसके विनाशकारी प्रभाव ने रंग दिखाना आरंभ कर दिया। अणु-परमाणु का विध्वंसक उपयोग होने लगा है। देशों में होड़ लगी है कि कौन कितना विनाशकारी हो सकता है।

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