Paragraph on ahinsak bharat me hinsa ka daur in Hindi
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भारत पारंपरिक रूप से एक अहिंसक समाज रहा है, यह धारणा भारतीयों में इस क़दर है कि जो इसकी आलोचना करे वे उससे लड़ने तक को तैयार हो जाते हैं. इतिहासकार उपिंदर सिंह अपनी किताब ‘प्राचीन भारत में राजनीतिक हिंसा’ में इस पर विचार करती हैं. वे देखने की कोशिश करती हैं कि प्राचीन भारत में राजनीतिक हिंसा या हिंसा मात्र को लेकर क्या रवैया था. इसके लिए वे पुरातात्विक अभिलेखों, राजाओं के अभिलेखों, ऐतिहासिक वृत्तों, धर्मशास्त्रीय ग्रंथों, साहित्यिक रचनाओं का सहारा लेती हैं. वे इस निष्कर्ष पर पहुंचती हैं कि हिंसा का प्रयोग हमेशा से बहस का विषय रहा है. यह किसके द्वारा, किन परिस्थितियों में किस सीमा तक स्वीकार्य है, इस पर अलग-अलग मत रहे हैं.
‘हिंसा और अहिंसा क्या है, जीवन से बढ़ हिंसा क्या है’ कहकर कवि हिंसा के प्रति एक प्रकार की बेपरवाही प्रदर्शित करता है. चूंकि जीवन जीने में किसी न किसी तरह की हिंसा होती ही है, राजनीति या समाज परिवर्तन में उसके प्रयोग या स्थान को लेकर बहस प्रायः व्यर्थ है, यह इस पंक्ति से व्यक्त होता लगता है. लेकिन उपिंदर सिंह बताती हैं कि प्राचीन काल से हिंसा को लेकर एक द्वंद्व का भाव भारत के बौद्धिक विचार-विमर्श में दिखलाई पड़ता है. हिंसा एक गहरा नैतिक प्रश्न है.
राज्य अपने आपमें हिंसा का उपकरण है. लेकिन उसके द्वारा न्यायपूर्ण ढंग से हिंसा का प्रयोग हो, यह महाभारतकार से लेकर कौटिल्य और अशोक तक की चिंता का विषय रहा है. हमारे यहां ऐसे अनेक प्रसंग हैं जिनमें राजा हिंसा के कारण ही राजकार्य से विरत होना चाहते हैं. ऐसे समय उन्हें राजा के योग्य कर्तव्य की याद दिलाई जाती है. हमारे यहां युद्धभूमि में कृष्ण द्वारा अर्जुन को दिया गया उपदेश ही नहीं है, बल्कि युद्ध समाप्त हो जाने पर युधिष्ठिर द्वारा रक्तपात पर विलाप करने और राज्य छोड़ देने की इच्छा जताने पर भीम, अर्जुन, नकुल, सहदेव और द्रौपदी के द्वारा उन्हें अपना कर्तव्य निभाने को कहने का पूरा प्रसंग भी है. यह हिंसा को अनासक्त भाव से राजा की तरह प्रयोग करने के सिद्धांत की बात करता है. राजा को अपने आनंद के लिए नहीं बल्कि व्यवस्था बनाए रखने के लिए अनिवार्य हिंसा की जिम्मेदारी लेनी ही होगी. भीष्म दुविधाग्रस्त युधिष्ठिर को अत्यधिक करुणा से सावधान करते हैं:
मात्र अनृशंस्य से बहुत कुछ नहीं हासिल किया जा सकता. लोग अत्यधिक कोमल ह्रदय, आत्म संयमी और आवश्यकता से अधिक न्यायशील होने के कारण तुमपर श्रद्धा नहीं रखेंगे. तुम जिस आचरण की बात कर रहे हो, वह राजा के अनुकूल व्यवहार नहीं है.
भीष्म का उपदेश बहुत सीधा है - राजा के अनुरूप आचरण करो, स्वर्ग विजय करो, साधुओं की रक्षा करो और दुष्टों का संहार.
आगे भीष्म युधिष्ठिर को समझाते हैं कि पूर्ण अहिंसा असंभव है. वनों में विचरने वाले ऋषि तक हिंसा करते हैं, फिर सारे प्राणियों का संरक्षण करने के दायित्व वाले राजा की बात ही क्या है! इस प्रसंग में ब्राह्मण कौशिक और एक शिकारी के बीच का संवाद दिलचस्प है. जब ब्राह्मण उसके पेशे की आलोचना करता है, शिकारी उसे बड़े सरल तरीके से कहता है कि धरती पर चलने मात्र में हिंसा है. आगे वह कहता है कि विरासत में मिले पेशे की अनिवार्यतावाली हिंसा में कोई पाप नहीं है.
भीष्म यह मानते हैं कि राजकर्म के साथ अनिवार्यतः जुड़ी हिंसा के पाप का प्रायश्चित जनता की सुरक्षा, उनकी तरक्की की व्यवस्था, यज्ञ, बलि और दान आदि से की जा सकती है. महाभारत अविचारित और असभ्य हिंसा और सुविचारित, अनिवार्य शक्ति प्रयोग और हिंसा में अंतर करता है.
इसकी चेतावनी भी आगे है कि राजा की ओर से यदि अविचारित और अनावश्यक हिंसा होगी तो राजा के विरुद्ध हिंसा उचित है. क्रूर और हिंसक वृत्ति के राजा का नाश होता ही है:
एक क्रूर राजा, जो अपनी प्रजा की रक्षा नहीं करता, जो उन्हें कर लेने के नाम पर लूटता है, कलि का अवतार है और उसकी प्रजा द्वारा उसकी ह्त्या कर दी जानी चाहिए. ‘मैं तुम्हारी रक्षा करूंगा’, ऐसी घोषणा के बाद जो उनकी रक्षा नहीं करता, प्रजा को चाहिए कि संगठित होकर उसका विनाश कर दे, जैसे एक पागल कुत्ते का किया जाता है.’
सारा द्वंद्व इस बात से है कि राज्य के साथ शक्ति का प्रयोग जुड़ा है और वह अनावश्यक हिंसा को जन्म दे सकता है. इसलिए कौटिल्य बल प्रयोग की जगह संवाद, विचार विमर्श और सलाह-मशविरे को अधिक उचित मानता है - पराजित राजा के साथ भी समझौता श्रेयस्कर है, न कि उसका पूर्ण नाश.
प्रजा के साथ भी कर जैसे प्रसंग में कौटिल्य अत्यधिक सावधानी की सलाह देता है:
जैसे बाग़ से फल चुनते हैं, वैसे ही उसे अपने राज्य से वैसे फलों को ही चुनना चाहिए जो पक रहे हों. अपने विनाश को ध्यान में रखते हुए उसे अधपके फलों को तोड़ने से बचना चाहिए जो कोपकारक हो सकता है, यानी विद्रोह को जन्म दे सकता है.
कौटिल्य अंततः व्यवहारवादी है और हिंसा को त्याज्य नहीं मानता. लेकिन राजा हिंसा से बच सकता है अगर वह प्रजा के संरक्षण और पोषण के अपने दायित्व को भलीभांति निभा रहा हो. अन्यथा प्रजा में विरक्ति और असंतोष पैदा हो सकता है.
‘हिंसा और अहिंसा क्या है, जीवन से बढ़ हिंसा क्या है’ कहकर कवि हिंसा के प्रति एक प्रकार की बेपरवाही प्रदर्शित करता है. चूंकि जीवन जीने में किसी न किसी तरह की हिंसा होती ही है, राजनीति या समाज परिवर्तन में उसके प्रयोग या स्थान को लेकर बहस प्रायः व्यर्थ है, यह इस पंक्ति से व्यक्त होता लगता है. लेकिन उपिंदर सिंह बताती हैं कि प्राचीन काल से हिंसा को लेकर एक द्वंद्व का भाव भारत के बौद्धिक विचार-विमर्श में दिखलाई पड़ता है. हिंसा एक गहरा नैतिक प्रश्न है.
राज्य अपने आपमें हिंसा का उपकरण है. लेकिन उसके द्वारा न्यायपूर्ण ढंग से हिंसा का प्रयोग हो, यह महाभारतकार से लेकर कौटिल्य और अशोक तक की चिंता का विषय रहा है. हमारे यहां ऐसे अनेक प्रसंग हैं जिनमें राजा हिंसा के कारण ही राजकार्य से विरत होना चाहते हैं. ऐसे समय उन्हें राजा के योग्य कर्तव्य की याद दिलाई जाती है. हमारे यहां युद्धभूमि में कृष्ण द्वारा अर्जुन को दिया गया उपदेश ही नहीं है, बल्कि युद्ध समाप्त हो जाने पर युधिष्ठिर द्वारा रक्तपात पर विलाप करने और राज्य छोड़ देने की इच्छा जताने पर भीम, अर्जुन, नकुल, सहदेव और द्रौपदी के द्वारा उन्हें अपना कर्तव्य निभाने को कहने का पूरा प्रसंग भी है. यह हिंसा को अनासक्त भाव से राजा की तरह प्रयोग करने के सिद्धांत की बात करता है. राजा को अपने आनंद के लिए नहीं बल्कि व्यवस्था बनाए रखने के लिए अनिवार्य हिंसा की जिम्मेदारी लेनी ही होगी. भीष्म दुविधाग्रस्त युधिष्ठिर को अत्यधिक करुणा से सावधान करते हैं:
मात्र अनृशंस्य से बहुत कुछ नहीं हासिल किया जा सकता. लोग अत्यधिक कोमल ह्रदय, आत्म संयमी और आवश्यकता से अधिक न्यायशील होने के कारण तुमपर श्रद्धा नहीं रखेंगे. तुम जिस आचरण की बात कर रहे हो, वह राजा के अनुकूल व्यवहार नहीं है.
भीष्म का उपदेश बहुत सीधा है - राजा के अनुरूप आचरण करो, स्वर्ग विजय करो, साधुओं की रक्षा करो और दुष्टों का संहार.
आगे भीष्म युधिष्ठिर को समझाते हैं कि पूर्ण अहिंसा असंभव है. वनों में विचरने वाले ऋषि तक हिंसा करते हैं, फिर सारे प्राणियों का संरक्षण करने के दायित्व वाले राजा की बात ही क्या है! इस प्रसंग में ब्राह्मण कौशिक और एक शिकारी के बीच का संवाद दिलचस्प है. जब ब्राह्मण उसके पेशे की आलोचना करता है, शिकारी उसे बड़े सरल तरीके से कहता है कि धरती पर चलने मात्र में हिंसा है. आगे वह कहता है कि विरासत में मिले पेशे की अनिवार्यतावाली हिंसा में कोई पाप नहीं है.
भीष्म यह मानते हैं कि राजकर्म के साथ अनिवार्यतः जुड़ी हिंसा के पाप का प्रायश्चित जनता की सुरक्षा, उनकी तरक्की की व्यवस्था, यज्ञ, बलि और दान आदि से की जा सकती है. महाभारत अविचारित और असभ्य हिंसा और सुविचारित, अनिवार्य शक्ति प्रयोग और हिंसा में अंतर करता है.
इसकी चेतावनी भी आगे है कि राजा की ओर से यदि अविचारित और अनावश्यक हिंसा होगी तो राजा के विरुद्ध हिंसा उचित है. क्रूर और हिंसक वृत्ति के राजा का नाश होता ही है:
एक क्रूर राजा, जो अपनी प्रजा की रक्षा नहीं करता, जो उन्हें कर लेने के नाम पर लूटता है, कलि का अवतार है और उसकी प्रजा द्वारा उसकी ह्त्या कर दी जानी चाहिए. ‘मैं तुम्हारी रक्षा करूंगा’, ऐसी घोषणा के बाद जो उनकी रक्षा नहीं करता, प्रजा को चाहिए कि संगठित होकर उसका विनाश कर दे, जैसे एक पागल कुत्ते का किया जाता है.’
सारा द्वंद्व इस बात से है कि राज्य के साथ शक्ति का प्रयोग जुड़ा है और वह अनावश्यक हिंसा को जन्म दे सकता है. इसलिए कौटिल्य बल प्रयोग की जगह संवाद, विचार विमर्श और सलाह-मशविरे को अधिक उचित मानता है - पराजित राजा के साथ भी समझौता श्रेयस्कर है, न कि उसका पूर्ण नाश.
प्रजा के साथ भी कर जैसे प्रसंग में कौटिल्य अत्यधिक सावधानी की सलाह देता है:
जैसे बाग़ से फल चुनते हैं, वैसे ही उसे अपने राज्य से वैसे फलों को ही चुनना चाहिए जो पक रहे हों. अपने विनाश को ध्यान में रखते हुए उसे अधपके फलों को तोड़ने से बचना चाहिए जो कोपकारक हो सकता है, यानी विद्रोह को जन्म दे सकता है.
कौटिल्य अंततः व्यवहारवादी है और हिंसा को त्याज्य नहीं मानता. लेकिन राजा हिंसा से बच सकता है अगर वह प्रजा के संरक्षण और पोषण के अपने दायित्व को भलीभांति निभा रहा हो. अन्यथा प्रजा में विरक्ति और असंतोष पैदा हो सकता है.
wnmanjusha:
but this is not the perfect answer brother
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hey are you Tamil?
can you please give me ur intro?
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