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अहमदनगर का किल
हमें यहाँ आए हुए बीस महीने से अधिक समय बीत गया–मेरी नौंवी जेलयात्रा का बीस महीने से भी अधिक समय। अंधियारे आकाश में झिलमिलाते दूज के चाँद ने यहाँ पहुँचने पर हमारा स्वागत किया। बढ़ते चाँद का उजला शुक्ल-पक्ष शुरू हो चुका था। तब से हर बार जब नया चाँद उगता है तो जैसे मुझे याद दिला जाता है कि मेरे कारावास का एक महीना और बीत गया। ऐसा ही मेरे पिछले कारावास की अवधि में हुआ था जी आलोक-पर्व दीपावली के तत्काल बाद नए चाँद के साथ शुरू हुई थी। चाँद, मेरे बंदी जीवन का स्थायी सहचर रहा है। पहचान गहराने से मित्रता और बढ़ गई है। वही मुझे दुनिया के सौंदर्य की, जीवन के ज्वार-भाटे की याद दिलाता है। साथ ही इस बात की भी कि अंधेरे के बाद उजाला होता है और मृत्यु और पुनर्जीवन एक दूसरे के पीछे अनंत क्रम में घूमते रहते हैं। निरंतर बदलते रहने के बावजूद हमेशा वैसा ही होता है ये चाँद। मैंने उसे उसकी विभिन्न कलाओं में, और तरह-तरह के मनोभावों में देखा है। शाम की लंबी होती परछाइयों में, रात के मौन प्रहरों में, और तब जब भोर के झोंके और मरमराहट, आने वाले दिन की आस बँधाते हैं।
अतीत का भार
दूसरे जेलों की तरह, यहाँ अहमदनगर के किले में भी मैंने बागबानी करना शुरू कर दिया। मैं रोज़ कई घंटे, तपती धूप में भी फूलों के लिए क्यारियाँ खोदकर तैयार करने में बिताने लगा। मिट्टी बहुत खराब थी-पथरीली और पहले बनाए गए मकानों के मलबे और अवशेषों से भरी हुई। उसमें प्राचीन स्मारकों के खण्डहर भी मौजूद थे इसलिए चूँकि यह इतिहास-स्थत है। अतीत में इसने कई युद्ध और राजमहलों की दुरभिसंधियाँ देखी हैं। भारत के पूरे इतिहास की दृष्टि से यहाँ का इतिहास बहुत पुराना नहीं है, घटनाओं के बृहतर संदर्भ में इसकी कोई विशेष अहमियत भी नहीं है। पर इनमें एक घटना औरों से विशिष्ट है, और आज भी याद की जाती है। यह है चाँद बीबी नामक एक सुन्दर महिला के साहस की कहानी, जिसने इस किले की रक्षा के लिए, तलवार हाथ में उठाकर, अकबर की शाही सेना के विरुद्ध अपनी सेना का नेतृत्व किया। उसकी हत्या उसके अपने ही एक आदमी के हाथों हुई।
इस अभागी धरती की खुदाई के दौरान हमें ज़मीन की सतह के बहुत नीचे दबे हुए प्राचीन दीवारों के हिस्से और गुंबदों और इमारतों के ऊपरी हिस्से मिले। हम बहुत दूर नहीं जा सके, क्योंकि अधिकारियों ने गहरी खुदाई करने और पुरातात्विक खोजबीन करने की अनुमति नहीं दी थी और न ही हमारे पास इस काम की जारी रखने के साधन थे। एक बार हमें एक तरफ दीवार पर पत्थर पर खुदे हुए सुंदर सफेद कमल की आकृति मिली। शायद यह पत्थर दरवाजे के ऊपर रहा होगा।
अब मैंने अपनी कुदाल छोड़कर उसके बदले कलम उठा ली है। मैं वर्तमान के बारे में तब तक नहीं लिख सकता जब तक उसे कर्म के माध्यम से अनुभव करने के लिए मैं आज़ाद नहीं हो जाता ना ही मैं पैगंबर की भूमिका अपनाकर भविष्य के बारे में लिख सकता हूँ।
बच रहता है अतीत, पर मैं बीती हुई घटनाओं के बारे में किसी इतिहासकार या विद्वान की विद्वतापूर्ण शैली में भी नहीं लिख सकता। मैं उसके बारे में उसी ढंग से लिख सकता हूँ जिस तरह मैं पहले भी लिख चुका हूँ-अपने आज के बार कहा था कि इस प्रकार का इतिहास-लेखन अतीत के भारी बोझ से एक सीमा तक राहत दिलाता है।
अहमदनगर का क़िला, 13 अप्रैल 1944
हमें यहाँ आए हुए बीस महीने से अधिक समय बीत गया–मेरी नौंवी जेलयात्रा का बीस महीने से भी अधिक समय। अंधियारे आकाश में झिलमिलाते दूज के चाँद ने यहाँ पहुँचने पर हमारा स्वागत किया। बढ़ते चाँद का उजला शुक्ल-पक्ष शुरू हो चुका था। तब से हर बार जब नया चाँद उगता है तो जैसे मुझे याद दिला जाता है कि मेरे कारावास का एक महीना और बीत गया। ऐसा ही मेरे पिछले कारावास की अवधि में हुआ था जी आलोक-पर्व दीपावली के तत्काल बाद नए चाँद के साथ शुरू हुई थी। चाँद, मेरे बंदी जीवन का स्थायी सहचर रहा है। पहचान गहराने से मित्रता और बढ़ गई है। वही मुझे दुनिया के सौंदर्य की, जीवन के ज्वार-भाटे की याद दिलाता है। साथ ही इस बात की भी कि अंधेरे के बाद उजाला होता है और मृत्यु और पुनर्जीवन एक दूसरे के पीछे अनंत क्रम में घूमते रहते हैं। निरंतर बदलते रहने के बावजूद हमेशा वैसा ही होता है ये चाँद। मैंने उसे उसकी विभिन्न कलाओं में, और तरह-तरह के मनोभावों में देखा है। शाम की लंबी होती परछाइयों में, रात के मौन प्रहरों में, और तब जब भोर के झोंके और मरमराहट, आने वाले दिन की आस बँधाते हैं।
अतीत का भार
दूसरे जेलों की तरह, यहाँ अहमदनगर के किले में भी मैंने बागबानी करना शुरू कर दिया। मैं रोज़ कई घंटे, तपती धूप में भी फूलों के लिए क्यारियाँ खोदकर तैयार करने में बिताने लगा। मिट्टी बहुत खराब थी-पथरीली और पहले बनाए गए मकानों के मलबे और अवशेषों से भरी हुई। उसमें प्राचीन स्मारकों के खण्डहर भी मौजूद थे इसलिए चूँकि यह इतिहास-स्थत है। अतीत में इसने कई युद्ध और राजमहलों की दुरभिसंधियाँ देखी हैं। भारत के पूरे इतिहास की दृष्टि से यहाँ का इतिहास बहुत पुराना नहीं है, घटनाओं के बृहतर संदर्भ में इसकी कोई विशेष अहमियत भी नहीं है। पर इनमें एक घटना औरों से विशिष्ट है, और आज भी याद की जाती है। यह है चाँद बीबी नामक एक सुन्दर महिला के साहस की कहानी, जिसने इस किले की रक्षा के लिए, तलवार हाथ में उठाकर, अकबर की शाही सेना के विरुद्ध अपनी सेना का नेतृत्व किया। उसकी हत्या उसके अपने ही एक आदमी के हाथों हुई।
इस अभागी धरती की खुदाई के दौरान हमें ज़मीन की सतह के बहुत नीचे दबे हुए प्राचीन दीवारों के हिस्से और गुंबदों और इमारतों के ऊपरी हिस्से मिले। हम बहुत दूर नहीं जा सके, क्योंकि अधिकारियों ने गहरी खुदाई करने और पुरातात्विक खोजबीन करने की अनुमति नहीं दी थी और न ही हमारे पास इस काम की जारी रखने के साधन थे। एक बार हमें एक तरफ दीवार पर पत्थर पर खुदे हुए सुंदर सफेद कमल की आकृति मिली। शायद यह पत्थर दरवाजे के ऊपर रहा होगा।
अब मैंने अपनी कुदाल छोड़कर उसके बदले कलम उठा ली है। मैं वर्तमान के बारे में तब तक नहीं लिख सकता जब तक उसे कर्म के माध्यम से अनुभव करने के लिए मैं आज़ाद नहीं हो जाता ना ही मैं पैगंबर की भूमिका अपनाकर भविष्य के बारे में लिख सकता हूँ।
बच रहता है अतीत, पर मैं बीती हुई घटनाओं के बारे में किसी इतिहासकार या विद्वान की विद्वतापूर्ण शैली में भी नहीं लिख सकता। मैं उसके बारे में उसी ढंग से लिख सकता हूँ जिस तरह मैं पहले भी लिख चुका हूँ-अपने आज के बार कहा था कि इस प्रकार का इतिहास-लेखन अतीत के भारी बोझ से एक सीमा तक राहत दिलाता है।
अतीत का दबाव
भला-बुरा, दोनों तरह का दबाव, अभिभूत करता है। कभी-कभी यह दबाव दम-घोटू होता है-खास तौर पर उन लोगों के लिए जिनकी जड़ें बहुत पुरानी सभ्यताओं में होती हैं-मसलन भारत और चीन की सभ्यताएँ। नीत्शे ने कहा था-“बीती हुई सदियों का विवेक ही नहीं उनकी दीवानगी भी हमारे भीतर से फूट पड़ती है। उनका वारिस होना आवश्यक है।”
आखिर मेरी विरासत क्या है? मैं किन बातों का उत्तराधिकारी हूँ? क्या उस जिसके बारे में उसने विचार किया, महसूस किया, भोगा और जिन वातों से उसने युगों पहले हुई और जो अव भी जारी है और हमें आकर्षित करती है। मैं इस सबका वारिस हूँ और उस सबका भी जिसमें पूरी मानव जाति की सेाझेदारी है। पर हम भारतवासियों की विरासत में एक खास बात है, लेकिन यह कोई अनोखी बात नहीं है, क्योंकि कोई व्यक्ति औरों से एकदम अलग नहीं होता। मानव-जाति के लिए सभी बातें समान हैं। अलबत्ता एक बात हम लोगों पर विशेष रूप से लागू होती है, जो हमारे रक्त, मांस और अस्थियों में समायी है। इसी विशेषता से हमारा वर्तमान रूप बना है, और हमारा भावी रूप बनेगा।
इसी विशिष्ट विरासत का विचार और वर्तमान पर इसे लागू करने की बात एक लंबे अरसे से मेरे मन में जगह बनाए है, और मैं इसी के बारे में लिखना चाहता हूँ। विषय की कठिनाई और जटिलता मुझे भयभीत करती है। मुझे लगता है कि मैं सतही तौर पर इसका स्पर्श ही कर सकता हूँ।