paragraph on jaisi karni waisi bharni in hindi
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बालकों ! पण्डित ईश्वरचन्द्र विद्यासागर का नाम तुम सभी ने सुना ही होगा । वह विद्वान ही हों सो बात नहीं है, उनका चरित्र भी बडे़ ऊँचे दर्जे का था, और वह सदा ही तन-मन और धन से, दुखियों का उपकार करने में लगे रहते थे।
एक दिन की बात है, पण्डित जी रेल में यात्रा कर रहे थे। वह मिदनापुर के स्टेशन पर रेल से उतरे। रेल के उसी डिब्बे में पण्डित जी के साथ एक विद्यार्थी भी था। विद्यालय में छुट्टी हो जाने के कारण वह कलकत्ते से अपने घर को आ रहा था। वह किसी कॉलिज में पढ़ता था और अपने आपको अभी से बहुत बड़ा आदमी समझता था। पण्डितजी को उसने दीन-हीन ब्राह्मण जाना और मार्ग में उनके साथ बातचीत तक नहीं की। उसको भी मिदनापुर ही उतरना था।
जिस समय दोनों स्टेशन पर उतरे, तब विद्यार्थी के हाथ में केवल एक छोटा सा बैग था। उसको उठाकर चलने में भी उसको भारी अपमान जान पडा। चिल्ला-चिल्लाकर कुली को पुकारने लगा। समय-संयोग की बात है, उस समय वहाँ कोई कुली नहीं मिला। अब तो वह बहुत घबराया।
यह दशा देख पण्डितजी ने कहा, ‘‘बाबूजी ! अपना यह बैग मुझे दे दीजिए। मैं इसे उठाकर आपके साथ चलूँगा।
विद्यार्थी को भला और चाहिये ही क्या था, उसने झट अपना बैग उन्हें दे दिया। वह दृश्य भी देखने ही योग्य था। विद्यार्थी गरदन उठाये अकड़-अकड़ कर आगे-आगे चल रहा था, और भारत का वह नामी महापुरुष उसका बैग उठाये उसके पीछे-पीछे आ रहा था।
विद्यार्थी का घर बहुत निकट था। घर पहुँचकर उसने अपना बैग सँभाल लिया, और मजदूरी के चार पैसे पण्डितजी को देने लगा। इस पर पण्डितजी ने बड़ी नम्रता से कहा, ‘‘आप कष्ट न कीजिये, रहने दीजिये। ’’ इतना कह बैग देकर पैसे लिये बिना ही चले आये।
दूसरे दिन नगर-निवासियों ने पण्डितजी के सम्मान में एक भारी सभा की । इसमें आने को सभी लोगों को बुलावा दिया गया। उसमें वह विद्यार्थी भी अपने पिता के साथ गया। परन्तु जब उसने विद्यासागर जी को वहाँ देखा और उसको उनका हाल-चाल मालूम हुआ, तो वह लज्जा के कारण शर्म से गड़ गया।
एक दिन की बात है, पण्डित जी रेल में यात्रा कर रहे थे। वह मिदनापुर के स्टेशन पर रेल से उतरे। रेल के उसी डिब्बे में पण्डित जी के साथ एक विद्यार्थी भी था। विद्यालय में छुट्टी हो जाने के कारण वह कलकत्ते से अपने घर को आ रहा था। वह किसी कॉलिज में पढ़ता था और अपने आपको अभी से बहुत बड़ा आदमी समझता था। पण्डितजी को उसने दीन-हीन ब्राह्मण जाना और मार्ग में उनके साथ बातचीत तक नहीं की। उसको भी मिदनापुर ही उतरना था।
जिस समय दोनों स्टेशन पर उतरे, तब विद्यार्थी के हाथ में केवल एक छोटा सा बैग था। उसको उठाकर चलने में भी उसको भारी अपमान जान पडा। चिल्ला-चिल्लाकर कुली को पुकारने लगा। समय-संयोग की बात है, उस समय वहाँ कोई कुली नहीं मिला। अब तो वह बहुत घबराया।
यह दशा देख पण्डितजी ने कहा, ‘‘बाबूजी ! अपना यह बैग मुझे दे दीजिए। मैं इसे उठाकर आपके साथ चलूँगा।
विद्यार्थी को भला और चाहिये ही क्या था, उसने झट अपना बैग उन्हें दे दिया। वह दृश्य भी देखने ही योग्य था। विद्यार्थी गरदन उठाये अकड़-अकड़ कर आगे-आगे चल रहा था, और भारत का वह नामी महापुरुष उसका बैग उठाये उसके पीछे-पीछे आ रहा था।
विद्यार्थी का घर बहुत निकट था। घर पहुँचकर उसने अपना बैग सँभाल लिया, और मजदूरी के चार पैसे पण्डितजी को देने लगा। इस पर पण्डितजी ने बड़ी नम्रता से कहा, ‘‘आप कष्ट न कीजिये, रहने दीजिये। ’’ इतना कह बैग देकर पैसे लिये बिना ही चले आये।
दूसरे दिन नगर-निवासियों ने पण्डितजी के सम्मान में एक भारी सभा की । इसमें आने को सभी लोगों को बुलावा दिया गया। उसमें वह विद्यार्थी भी अपने पिता के साथ गया। परन्तु जब उसने विद्यासागर जी को वहाँ देखा और उसको उनका हाल-चाल मालूम हुआ, तो वह लज्जा के कारण शर्म से गड़ गया।
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Yah ek mahan kahavat hai Jaisi karni waisi bharni jiska Arth hai tum jaisa apne Jeevan mein karoge uska waisa hi fal paoge .
Chalo ham ek udharan lele jaise ki agar ek chor chori karta hai to vah pakda jata hai jisse uska bahut nuksan hota hai , aur agar ek Insan imandari dikha Kai koi accha kaam karta hai to vah jeevan bhar sukhi rehta hai
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