paragraph on relationship between teacher and student in hindi
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Paragraph on the Teacher–Student Relationship in Hindi Language.
Paragraph on the Teacher–Student Relationship in Hindi Language.मानव-समाज में शिक्षा प्रदान करना और शिक्षा ग्रहण करना, दोनों ही महत्त्वपूर्ण कार्य माने जाते रहे हैं । ज्ञान के अभाव में मनुष्य को पशु समान माना जाता है और बिना गुरु के ज्ञान प्राप्त नहीं होता । ज्ञान अथवा शिक्षा प्रदान करने और ग्रहण करने के लिए ही गुरु-शिष्य का सम्बन्ध बना है ।
Paragraph on the Teacher–Student Relationship in Hindi Language.मानव-समाज में शिक्षा प्रदान करना और शिक्षा ग्रहण करना, दोनों ही महत्त्वपूर्ण कार्य माने जाते रहे हैं । ज्ञान के अभाव में मनुष्य को पशु समान माना जाता है और बिना गुरु के ज्ञान प्राप्त नहीं होता । ज्ञान अथवा शिक्षा प्रदान करने और ग्रहण करने के लिए ही गुरु-शिष्य का सम्बन्ध बना है ।गुरु-शिष्य अथवा शिक्षक-छात्र का सम्बन्ध इसीलिए अधिक महत्त्वपूर्ण हो जाता है क्योंकि इस सम्बंध के उपरान्त ही पशु समान मनुष्य के ज्ञानी बनने की प्रक्रिया आरम्भ होती है । प्राचीन काल में शिक्षा ग्रहण करने के लिए छात्र गुरुकुल अथवा आश्रमों में जाया करते थे ।
Paragraph on the Teacher–Student Relationship in Hindi Language.मानव-समाज में शिक्षा प्रदान करना और शिक्षा ग्रहण करना, दोनों ही महत्त्वपूर्ण कार्य माने जाते रहे हैं । ज्ञान के अभाव में मनुष्य को पशु समान माना जाता है और बिना गुरु के ज्ञान प्राप्त नहीं होता । ज्ञान अथवा शिक्षा प्रदान करने और ग्रहण करने के लिए ही गुरु-शिष्य का सम्बन्ध बना है ।गुरु-शिष्य अथवा शिक्षक-छात्र का सम्बन्ध इसीलिए अधिक महत्त्वपूर्ण हो जाता है क्योंकि इस सम्बंध के उपरान्त ही पशु समान मनुष्य के ज्ञानी बनने की प्रक्रिया आरम्भ होती है । प्राचीन काल में शिक्षा ग्रहण करने के लिए छात्र गुरुकुल अथवा आश्रमों में जाया करते थे ।उस काल में गुरु-शिष्य का सम्बन्ध बहुत महत्त्वपूर्ण हुआ करता था । शिक्षा प्रदान करने वाले गुरु को भगवान तुल्य माना जाता था । अपने शिष्यों के प्रति गुरा का व्यवहार भी पिता तुल्य हुआ करता था । गुरु अपनी सन्तान की भाँति शिष्यों के भविष्य के प्रति चिंतित रहते थे और उन्हें शिक्षित करने के लिए प्रयत्न किया करते थे ।
Paragraph on the Teacher–Student Relationship in Hindi Language.मानव-समाज में शिक्षा प्रदान करना और शिक्षा ग्रहण करना, दोनों ही महत्त्वपूर्ण कार्य माने जाते रहे हैं । ज्ञान के अभाव में मनुष्य को पशु समान माना जाता है और बिना गुरु के ज्ञान प्राप्त नहीं होता । ज्ञान अथवा शिक्षा प्रदान करने और ग्रहण करने के लिए ही गुरु-शिष्य का सम्बन्ध बना है ।गुरु-शिष्य अथवा शिक्षक-छात्र का सम्बन्ध इसीलिए अधिक महत्त्वपूर्ण हो जाता है क्योंकि इस सम्बंध के उपरान्त ही पशु समान मनुष्य के ज्ञानी बनने की प्रक्रिया आरम्भ होती है । प्राचीन काल में शिक्षा ग्रहण करने के लिए छात्र गुरुकुल अथवा आश्रमों में जाया करते थे ।उस काल में गुरु-शिष्य का सम्बन्ध बहुत महत्त्वपूर्ण हुआ करता था । शिक्षा प्रदान करने वाले गुरु को भगवान तुल्य माना जाता था । अपने शिष्यों के प्रति गुरा का व्यवहार भी पिता तुल्य हुआ करता था । गुरु अपनी सन्तान की भाँति शिष्यों के भविष्य के प्रति चिंतित रहते थे और उन्हें शिक्षित करने के लिए प्रयत्न किया करते थे ।एक पिता के समान गुरु गलती करने पर शिष्यों को सख्त सजा भी दिया करते थे, ताकि अपनी गलती का अनुभव करके शिष्य उसे दोहराने का प्रयत्न न कर सकें । उस काल में शिष्य भी गुरु द्वारा दी गयी सजा को सहर्ष स्वीकार कर लिया करते थे । उन्हें अपने गुरु पर पूर्ण विश्वास होता था ।न्ध की गरिमा बिखरने लगी । शिक्षकों का छात्रों के प्रति पिता तुल्य व्यवहार नहीं रहा और छात्रों के हृदय में शिक्षक के प्रति आदर का भाव घटने लगा ।
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.मानव-समाज में शिक्षा प्रदान करना और शिक्षा ग्रहण करना, दोनों ही महत्त्वपूर्ण कार्य माने जाते रहे हैं । ज्ञान के अभाव में मनुष्य को पशु समान माना जाता है और बिना गुरु के ज्ञान प्राप्त नहीं होता । ज्ञान अथवा शिक्षा प्रदान करने और ग्रहण करने के लिए ही गुरु-शिष्य का सम्बन्ध बना है ।गुरु-शिष्य अथवा शिक्षक-छात्र का सम्बन्ध इसीलिए अधिक महत्त्वपूर्ण हो जाता है क्योंकि इस सम्बंध के उपरान्त ही पशु समान मनुष्य के ज्ञानी बनने की प्रक्रिया आरम्भ होती है । प्राचीन काल में शिक्षा ग्रहण करने के लिए छात्र गुरुकुल अथवा आश्रमों में जाया करते थे ।उस काल में गुरु-शिष्य का सम्बन्ध बहुत महत्त्वपूर्ण हुआ करता था । शिक्षा प्रदान करने वाले गुरु को भगवान तुल्य माना जाता था । अपने शिष्यों के प्रति गुरा का व्यवहार भी पिता तुल्य हुआ करता था । गुरु अपनी सन्तान की भाँति शिष्यों के भविष्य के प्रति चिंतित रहते थे और उन्हें शिक्षित करने के लिए प्रयत्न किया करते थे ।एक पिता के समान गुरु गलती करने पर शिष्यों को सख्त सजा भी दिया करते थे, ताकि अपनी गलती का अनुभव करके शिष्य उसे दोहराने का प्रयत्न न कर सकें । उस काल में शिष्य भी गुरु द्वारा दी गयी सजा को सहर्ष स्वीकार कर लिया करते थे । उन्हें अपने गुरु पर पूर्ण विश्वास होता था ।न्ध की गरिमा बिखरने लगी । शिक्षकों का छात्रों के प्रति पिता तुल्य व्यवहार नहीं रहा और छात्रों के हृदय में शिक्षक के प्रति आदर का भाव घटने लगा ।
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