paragraph on वन संरक्षण
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मनुष्य के जीवित रहने के लिए वन्य-संपदा की उतनी ही आवश्यकता है जितनी कि अन्य संपदाओं की । पौधे और जंतु दोनों ही वन के अंग हैं । यदि कोई एक अंग समाप्त हो जाएगा तो समूचा वन समाप्त हो सकता है ।
आपके मस्तिष्क में एक प्रश्न कौंधता होगा, आखिर हमें इन वनों की क्या जरूरत है ? इसका उत्तर बहुत स्पष्ट है । ये वन हमें लकड़ी, रेशे, दलइयाँ तथा खाद्य सामग्री देते हैं । इन वनों पर ही मौसम का संतुलन निर्भर करता है । वर्षा इन वनों पर आश्रित है । ये वन ऐसे जीन्स अथवा गुणों के साधन हैं, जिनसे नए प्रकार के जीवन उत्पन्न हो सकते हैं ।
यदि किसी जंगल से जानवर समाप्त हो जाएँ तो क्या होगा ? इसका उत्तर साफ है । जब मांसाहारी जीव-जंतु समाप्त हो जाएँगे तब शाकाहारी जीव-जंतुओं की संख्या बढ़ जाएगी । ये शाकाहारी जीव-जंतु बेरोक-टोक पौधों को चरते चले जाएँगे । इसका प्रभाव यह होगा कि पौधे और वृक्षों की संख्या घटती जाएगी । अंत में जंगल ही समाप्त हो जाएँगे ।
यदि मरे हुए प्राणियों को खानेवाले जंतु न रहें तो भी जंगल नष्ट हो जाएँगे । इससे मृतक पौधों और जीव-जंतुओं का ढेर ही नहीं लगेगा, अपितु पोषक तत्त्वों का पुन: उपलब्ध होना रुक जाएगा । इस प्रकार जंगल का जीवन संकट में पड़ जाएगा ।
वन समाप्त हो जाएँगे तो न केवल वर्षा, मौसम, धरती के आस-पास के तापमान इत्यादि पर कुप्रभाव पड़ेगा, बल्कि इससे बहुत बड़े पैमाने पर मिट्टी का कटाव आरंभ हो जाएगा । यह मिट्टी बहकर वर्षा के जल के साथ नदियों में जाएगी । वहाँ पर नदियों के बहाव के लिए बाधक सिद्ध होगी और फिर भयंकर बाढ़ का कारण बनेगी ।
प्राय: वनों के समाप्त होने का मुख्य कारण इनका अंधाधुंध काटा जाना है । बढ़ती हुई जनसंख्या की उदरपूर्ति के लिए कृषि हेतु अधिक भूमि उपलब्ध कराने के लिए वनों का काटा जाना बहुत ही साधारण बात है । वनों को इस प्रकार नष्ट करने से कृषि पर विपरीत प्रभाव पड़ता है ।
वैज्ञानिकों के अनुसार, स्वस्थ वातावरण (पर्यावरण) के लिए ३३ प्रतिशत भूमि पर वन होने चाहिए । इससे पर्यावरण का संतुलन बना रहता है । दुःख और चिंता का विषय है कि भारत में सरकारी आँकड़ों के अनुसार मात्र १९.५ प्रतिशत क्षेत्र में ही वन हैं । गैर-सरकारी सूत्र केवल १० से १५ प्रतिशत वन क्षेत्र बताते हैं ।
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स्वतंत्रता के बाद कई वन आधारित उद्योग खड़े हुए। ये उद्योग मांग पूर्ति के लिये सीधे वनों से जुड़ गये। औद्योगिक लकड़ी पर यह मार सीधी पड़ी। इंडियन इंस्टीटयूट ऑफ साइंस के एक प्रमुख वनस्पति विशेषज्ञ माधव गाडगिल का कहना था कि ''हमारे देश की आर्थिक स्थिति कुछ ऐसी है कि इसमें समाज के किसी भी हिस्से- आम लोगों, सरकारों और उद्योगों- का वन संरक्षण से कोई वास्ता नहीं रह गया है।'' दक्षिण भारत की कागज की मिलों द्वारा बांस वनों का उजड़ना एक ऐसा ही उदाहरण है। वहां कागज उद्योगों के कारण स्थानीय बंसोड़ों का जीवन मुश्किल में पड़ गया था। लिहाजा रोजमर्रा की जरूरत के लिए बांस की चोरी भी होने लगी। इसके अलावा सबसे यादा वर्षा वाला चेरापुंजी क्षेत्र वनविहीन होने लगा। लाखों हेक्टर वन हर वर्ष विकास योजनाओं के नाम पर बलि चढ़ जाते हैं। हिमांचल में भी सेव के बक्से बनाने में ही बड़ी मात्रा में लकड़ियां खप जाती हैं। एक जातीय वृक्षारोपण भी नई समस्याएं खड़ी कर रहा है। प्राकृतिक वन इससे नष्ट हो रहे हैं। प्रचुर मात्रा में मिलने वाले प्राकृतिक और पर्यावरण मित्र माने जाने वाले वनोत्पादों पर भी इसका दुष्प्रभाव पड़ा है। एक वन विशेषज्ञ के मुताबिक- ''वास्तव में वन-नीति का संबंध पेड़ों से उतना नहीं है जितना लोगों से है। पेड़ों का संबंध वहीं तक है जहां तक वे लोगों की जरूरतों को पूरा करते हैं।'' भारत में वन कभी भी लोगों के लिये आरक्षित नहीं रहे। अधिक से अधिक राजस्व प्राप्ति की व्यावसायिक सोच ही वन-संरक्षण की राह में एक बड़ी बाधा है। वन्य प्राणियों का अस्तित्व भी संकटग्रस्त हो चला है। उनको बचाने के लिये अभयारण्य की व्यवस्था की योजनाएं बनने लगीं। परंतु अब भी वन संरक्षण की समस्या जटिल साबित हो रही है क्योंकि अभयारण्य को विकसित करने की पहल ने आदिवासियों के प्राकृतिक जीवनशैली को संकट में डाल रखा है। वनों का बचाना मानव सहित समस्त प्राणियों के लिये अत्यावश्यक है।