paragraph wisesummary of poem manushyata
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विचार लो कि मर्त्य हो न मृत्यु से डरो कभी,
मरो, परंतु यों मरो कि याद जो करें सभी।
हुई न यों सुमृत्यु तो वृथा मरे, वृथा जिए,
मरा नहीं वही कि जो जिया न आपके लिए।
वही पशु प्रवृत्ति है कि आप आप ही चरे,
वही मनुष्य है कि जो मनुष्य के लिए मरे॥
उस आदमी का जीना या मरना अर्थहीन है जो अपने स्वार्थ के लिए जीता या मरता है। जिस तरह से पशु का अस्तित्व सिर्फ अपने जीवन यापन के लिए होता है, मनुष्य का जीवन वैसा नहीं होना चाहिए। ऐसा जीवन जीने वाले कब जीते हैं और कब मरते हैं कोई ध्यान ही नहीं देता है। हमें दूसरों के लिए कुछ ऐसे काम करने चाहिए कि मरने के बाद भी लोग हमें याद रखें। साथ में हमें ये भी अहसास होना चाहिए कि हम अमर नहीं हैं। इससे हमारे अंदर से मृत्यु का भय चला जाता है।
उसी उदार की कथा सरस्वती बखानती,
उसी उदार को धरा कृतार्थ भाव मानती।
उसी उदार की सदा सजीव कीर्ति कूजती;तथा उसी उदार को समस्त सृष्टि पूजती।
अखंड आत्म भाव जो असीम विश्व में भरे,
वही मनुष्य है कि जो मनुष्य के लिए मरे॥
जो आदमी पूरे संसार में अत्मीयता और भाईचारा का संचार करता है उसी उदार की कीर्ति युग युग तक गूँजती है। धरती भी सदैव उसकी कृतघ्न रहती है। समस्त सृष्टि उस उदार की पूजा करती है और सरस्वती उसका बखान करती है।
क्षुधार्त रतिदेव ने दिया करस्थ थाल भी,
तथा दधीचि ने दिया परार्थ अस्थिजाल भी।
उशीनर क्षितीश ने स्वमांस दान भी किया,
सहर्ष वीर कर्ण ने शरीर चर्म भी दिया।
अनित्य देह के लिए अनादि जीव क्या डरे?
वही मनुष्य है कि जो मनुष्य के लिए मरे॥
पौराणिक कथाओं में ऐसे कई महादानियों की कहानियाँ भरी पड़ी हैं जिन्होंने दूसरों के हित के लिए अपना सब कुछ दान कर दिया। रतिदेव ने अपने हाथ की आखिरी थाली भी दान में दे दी थी। दधिची ने वज्र बनाने के लिए अपनी हड्डी देवताओं को दे दी थी जिससे सबका भला हो पाया। सिबि ने कबूतर की जान बचाने के लिए बहेलिए को अपने शरीर का मांस दे दिया। ऐसे बहुत से महापुरुष इस दुनिया में पैदा हुए हैं जिनके परोपकार के कारण आज भी लोग उन्हें याद करते हैं।
सहानुभूति चाहिए, महाविभूति है यही;
वशीकृता सदैव है बनी हुई स्वयं मही।
विरुद्धवाद बुद्ध का दया प्रवाह में बहा,
विनीत लोकवर्ग क्या न सामने झुका रहा?
अहा! वही उदार है परोपकार जो करे,
वही मनुष्य है कि जो मनुष्य के लिए मरे॥
पूरी दुनिया पर उपकार करने की इक्षा ही सबसे बड़ा धन होता है। ईश्वर भी ऐसे लोगों के वश में हो जाते हैं। जब भगवान बुद्ध से लोगों का दर्द नहीं सहा गया तो वे दुनिया के नियमों के खिलाफ हो गए। उनका दुनिया के विरुद्ध जाना लोगों की भलाई के लिए था, इसलिए आज भी लोग उन्हें पूजते हैं।
रहो न भूल के कभी मदांध तुच्छ वित्त में,
सनाथ जान आपको करो न गर्व चित्त में।
अनाथ कौन है यहाँ? त्रिलोकनाथ साथ हैं,
दयालु दीनबंधु के बड़े विशाल हाथ हैं।
अतीव भाग्यहीन है अधीर भाव जो करे,
वही मनुष्य है कि जो मनुष्य के लिए मरे॥
यहाँ पर कोई भी अनाथ नहीं है। भगवान के हाथ इतने बड़े हैं कि उनका हाथ सबके सिर पर होता है। इसलिए यह सोचकर कभी भी घमंड नहीं करना चाहिए कि तुम्हारे पास बहुत संपत्ति या यश है। ऐसा अधीर व्यक्ति बहुत बड़ा भाग्यहीन होता है।
अनंत अंतरिक्ष में अनंत देव हैं खड़े,
समक्ष ही स्वबाहु जो बढ़ा रहे बड़े-बड़े।
परस्परावलंब से उठो तथा बढ़ो सभी,
अभी अमर्त्य अंक में अपंक हो चढ़ो सभी।
रहो न यों कि एक से न काम और का सरे,
वही मनुष्य है कि जो मनुष्य के लिए मरे॥
जिस तरह से ब्रह्माण्ड में अनंत देवी देवता जनहित के लिए एक दूसरे के साथ मिलजुलकर काम करते हैं, उसी तरह इंसान को भी आपसी भाईचारे से काम करना चाहिए। ऐसा नहीं होना चाहिए कि किसी से किसी और का काम न चले, बल्कि सभी एक दूसरे के काम आएँ।
‘मनुष्य मात्र बंधु है’ यही बड़ा विवेक है,
पुराणपुरुष स्वयंभू पिता प्रसिद्ध एक है।
फलानुसार कर्म के अवश्य वाह्य भेद हैं,
परंतु अंतरैक्य में प्रमाणभूत वेद हैं।
अनर्थ है कि बंधु ही न बंधु की व्यथा हरे,
वही मनुष्य है कि जो मनुष्य के लिए मरे॥
सभी मनुष्य एक दूसरे के भाई बंधु हैं और सबके माता पिता परम परमेश्वर हैं। कोई काम बड़ा है या छोटा ऐसा केवल बाहर से दिखता है। अंदर से अभी एक समान हैं। इसलिए कर्म के आधार पर किसी को बड़ा या छोटा नहीं समझना चाहिए। भाई अगर भाई की पीड़ा ना हरे तो मानव जीवन व्यर्थ है। ये पंक्तियाँ कहीं न कहीं हमारी जाति व्यवस्था की तरफ इशारा करती हैं।
चलो अभीष्ट मार्ग में सहर्ष खेलते हुए,
विपत्ति, विघ्न जो पड़ें उन्हें ढ़केलते हुए।
घटे न हेलमेल हाँ, बढ़े न भिन्नता कभी,
अतर्क एक पंथ के सतर्क पंथ हों सभी।
तभी समर्थ भाव है कि तारता हुआ तरे,
वही मनुष्य है कि जो मनुष्य के लिए मरे॥
हमें अपने लक्ष्य की ओर हँसते हुए और रास्ते की बाधाओं को हटाते हुए चलते रहना चाहिए। जो रास्ता आपने चुना है उसपर बिना किसी बहस के पूरी निष्ठा से चलना चाहिए। इसमें भेदभाव बढ़ने की कोई गुंजाइश नहीं होनी चाहिए, बल्कि भाईचारा जितना बढ़े उतना ही अच्छा है। वही समर्थ है जो खुद तो पार हो ही और दूसरों की नैया को भी पार लगाए।
यह पूरी कविता सहोपकारिता और परोपकारिता का उपदेश देती है। जीवन के हर परिप्रेक्ष्य में हम एक दूसरे के सहयोग पर निर्भर करते हैं। मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है और पूरा मानव समाज इसी सहयोग पर आधारित है। जो दूसरे की भलाई में जीवन लगाता है, उसे आने वाली पीढ़ियाँ हमेशा याद रखती हैं।
मरो, परंतु यों मरो कि याद जो करें सभी।
हुई न यों सुमृत्यु तो वृथा मरे, वृथा जिए,
मरा नहीं वही कि जो जिया न आपके लिए।
वही पशु प्रवृत्ति है कि आप आप ही चरे,
वही मनुष्य है कि जो मनुष्य के लिए मरे॥
उस आदमी का जीना या मरना अर्थहीन है जो अपने स्वार्थ के लिए जीता या मरता है। जिस तरह से पशु का अस्तित्व सिर्फ अपने जीवन यापन के लिए होता है, मनुष्य का जीवन वैसा नहीं होना चाहिए। ऐसा जीवन जीने वाले कब जीते हैं और कब मरते हैं कोई ध्यान ही नहीं देता है। हमें दूसरों के लिए कुछ ऐसे काम करने चाहिए कि मरने के बाद भी लोग हमें याद रखें। साथ में हमें ये भी अहसास होना चाहिए कि हम अमर नहीं हैं। इससे हमारे अंदर से मृत्यु का भय चला जाता है।
उसी उदार की कथा सरस्वती बखानती,
उसी उदार को धरा कृतार्थ भाव मानती।
उसी उदार की सदा सजीव कीर्ति कूजती;तथा उसी उदार को समस्त सृष्टि पूजती।
अखंड आत्म भाव जो असीम विश्व में भरे,
वही मनुष्य है कि जो मनुष्य के लिए मरे॥
जो आदमी पूरे संसार में अत्मीयता और भाईचारा का संचार करता है उसी उदार की कीर्ति युग युग तक गूँजती है। धरती भी सदैव उसकी कृतघ्न रहती है। समस्त सृष्टि उस उदार की पूजा करती है और सरस्वती उसका बखान करती है।
क्षुधार्त रतिदेव ने दिया करस्थ थाल भी,
तथा दधीचि ने दिया परार्थ अस्थिजाल भी।
उशीनर क्षितीश ने स्वमांस दान भी किया,
सहर्ष वीर कर्ण ने शरीर चर्म भी दिया।
अनित्य देह के लिए अनादि जीव क्या डरे?
वही मनुष्य है कि जो मनुष्य के लिए मरे॥
पौराणिक कथाओं में ऐसे कई महादानियों की कहानियाँ भरी पड़ी हैं जिन्होंने दूसरों के हित के लिए अपना सब कुछ दान कर दिया। रतिदेव ने अपने हाथ की आखिरी थाली भी दान में दे दी थी। दधिची ने वज्र बनाने के लिए अपनी हड्डी देवताओं को दे दी थी जिससे सबका भला हो पाया। सिबि ने कबूतर की जान बचाने के लिए बहेलिए को अपने शरीर का मांस दे दिया। ऐसे बहुत से महापुरुष इस दुनिया में पैदा हुए हैं जिनके परोपकार के कारण आज भी लोग उन्हें याद करते हैं।
सहानुभूति चाहिए, महाविभूति है यही;
वशीकृता सदैव है बनी हुई स्वयं मही।
विरुद्धवाद बुद्ध का दया प्रवाह में बहा,
विनीत लोकवर्ग क्या न सामने झुका रहा?
अहा! वही उदार है परोपकार जो करे,
वही मनुष्य है कि जो मनुष्य के लिए मरे॥
पूरी दुनिया पर उपकार करने की इक्षा ही सबसे बड़ा धन होता है। ईश्वर भी ऐसे लोगों के वश में हो जाते हैं। जब भगवान बुद्ध से लोगों का दर्द नहीं सहा गया तो वे दुनिया के नियमों के खिलाफ हो गए। उनका दुनिया के विरुद्ध जाना लोगों की भलाई के लिए था, इसलिए आज भी लोग उन्हें पूजते हैं।
रहो न भूल के कभी मदांध तुच्छ वित्त में,
सनाथ जान आपको करो न गर्व चित्त में।
अनाथ कौन है यहाँ? त्रिलोकनाथ साथ हैं,
दयालु दीनबंधु के बड़े विशाल हाथ हैं।
अतीव भाग्यहीन है अधीर भाव जो करे,
वही मनुष्य है कि जो मनुष्य के लिए मरे॥
यहाँ पर कोई भी अनाथ नहीं है। भगवान के हाथ इतने बड़े हैं कि उनका हाथ सबके सिर पर होता है। इसलिए यह सोचकर कभी भी घमंड नहीं करना चाहिए कि तुम्हारे पास बहुत संपत्ति या यश है। ऐसा अधीर व्यक्ति बहुत बड़ा भाग्यहीन होता है।
अनंत अंतरिक्ष में अनंत देव हैं खड़े,
समक्ष ही स्वबाहु जो बढ़ा रहे बड़े-बड़े।
परस्परावलंब से उठो तथा बढ़ो सभी,
अभी अमर्त्य अंक में अपंक हो चढ़ो सभी।
रहो न यों कि एक से न काम और का सरे,
वही मनुष्य है कि जो मनुष्य के लिए मरे॥
जिस तरह से ब्रह्माण्ड में अनंत देवी देवता जनहित के लिए एक दूसरे के साथ मिलजुलकर काम करते हैं, उसी तरह इंसान को भी आपसी भाईचारे से काम करना चाहिए। ऐसा नहीं होना चाहिए कि किसी से किसी और का काम न चले, बल्कि सभी एक दूसरे के काम आएँ।
‘मनुष्य मात्र बंधु है’ यही बड़ा विवेक है,
पुराणपुरुष स्वयंभू पिता प्रसिद्ध एक है।
फलानुसार कर्म के अवश्य वाह्य भेद हैं,
परंतु अंतरैक्य में प्रमाणभूत वेद हैं।
अनर्थ है कि बंधु ही न बंधु की व्यथा हरे,
वही मनुष्य है कि जो मनुष्य के लिए मरे॥
सभी मनुष्य एक दूसरे के भाई बंधु हैं और सबके माता पिता परम परमेश्वर हैं। कोई काम बड़ा है या छोटा ऐसा केवल बाहर से दिखता है। अंदर से अभी एक समान हैं। इसलिए कर्म के आधार पर किसी को बड़ा या छोटा नहीं समझना चाहिए। भाई अगर भाई की पीड़ा ना हरे तो मानव जीवन व्यर्थ है। ये पंक्तियाँ कहीं न कहीं हमारी जाति व्यवस्था की तरफ इशारा करती हैं।
चलो अभीष्ट मार्ग में सहर्ष खेलते हुए,
विपत्ति, विघ्न जो पड़ें उन्हें ढ़केलते हुए।
घटे न हेलमेल हाँ, बढ़े न भिन्नता कभी,
अतर्क एक पंथ के सतर्क पंथ हों सभी।
तभी समर्थ भाव है कि तारता हुआ तरे,
वही मनुष्य है कि जो मनुष्य के लिए मरे॥
हमें अपने लक्ष्य की ओर हँसते हुए और रास्ते की बाधाओं को हटाते हुए चलते रहना चाहिए। जो रास्ता आपने चुना है उसपर बिना किसी बहस के पूरी निष्ठा से चलना चाहिए। इसमें भेदभाव बढ़ने की कोई गुंजाइश नहीं होनी चाहिए, बल्कि भाईचारा जितना बढ़े उतना ही अच्छा है। वही समर्थ है जो खुद तो पार हो ही और दूसरों की नैया को भी पार लगाए।
यह पूरी कविता सहोपकारिता और परोपकारिता का उपदेश देती है। जीवन के हर परिप्रेक्ष्य में हम एक दूसरे के सहयोग पर निर्भर करते हैं। मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है और पूरा मानव समाज इसी सहयोग पर आधारित है। जो दूसरे की भलाई में जीवन लगाता है, उसे आने वाली पीढ़ियाँ हमेशा याद रखती हैं।
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