Hindi, asked by CharanMultani1475, 1 year ago

" परहित सरिस धर्म नहिं भाई।पर पीड़ा सम नहिं अधमाई ।।" भाव स्पष्ट कीजिए:-

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Answered by shiv1345
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परोपकार की भावना मनुष्य को महानता की ओर ले जाती है । परोपकार से बढ़कर कोई पुण्य नहीं है । ईश्वर भी प्रकृति के माध्यम से हमें यह दर्शाता है कि परोपकार ही सबसे बड़ा गुण है क्योंकि पृथ्वी, नदी अथवा वृक्ष सभी दूसरों के लिए ही हैं ।
‘वृक्ष कबहुँ नहिं फल भखै,
नदी न सर्चै नीर ।
परमारथ के कारणे, साधुन धरा शरीर ।’
परोपकार अर्थात् ‘पर+उपकार’ यानी दूसरों के लिए स्वयं को समर्पित करना व्यक्ति का सबसे बड़ा धर्म है । नदी का जल दूसरों के लिए है । वृक्ष कभी स्वयं अपना फल नहीं खाता है । इसी प्रकार धरती की सभी उपज दूसरों के लिए होती है । चाहे कितनी ही विषम परिस्थितियाँ क्यों न हों परन्तु ये सभी परोपकार की भावना का कभी परित्याग नहीं करते हैं ।
वे मनुष्य भी महान होते हैं जो विकट से विकट परिस्थितियों में भी स्वयं को दूसरों के लिए, देश की सेवा के लिए अपने आपको बलिदान कर देते हैं । वे इतिहास में अमर हो गए । जब तक मानव सभ्यता रहेगी उनकी कुर्बानी सदा याद रहेगी ।
गोस्वामी तुलसीदास जी ने इस संदर्भ में बड़ी ही मार्मिक पंक्तियाँ लिखी हैं:

”परहित सरिस धर्म नहिं भाई ।
पर पीड़ा सम नहिं अघमाई ।।”

उन्होंने ‘परहित’ अर्थात् परोपकार को मनुष्य का सबसे बड़ा धर्म बताया है । वहीं दूसरी ओर दूसरों को कष्ट पहुँचाने से बड़ा कोई अधर्म नहीं है । परोपकार ही वह गुण है जिसके कारण प्रभु ईसा मसीह सूली पर चढ़े, गाँधी जी ने गोली खाई तथा गुरु गोविंद सिंह जी ने अपने सम्मुख अपने बच्चों को दीवार में चुनते हुए देखा ।
सुकरात ने विष के प्याले का वरण कर लिया लेकिन मानवता को सच्चा ज्ञान देने के मार्ग का त्याग नहीं किया । ऋषि दधीचि ने देवताओं के कल्याण के लिए अपना शरीर त्याग दिया। इसके इसी महान गुण के कारण ही आज भी लोग इन्हें श्रद्‌धापूर्वक नमन करते हैं ।
परोपकार ही वह महान गुण है जो मानव को इस सृष्टि के अन्य जीवों से उसे अलग करता है और सभी में श्रेष्ठता प्रदान करता है । इस गुण के अभाव में तो मनुष्य भी पशु की ही भाँति होता ।
Answered by akshatkulhar09
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Answer:

परहित सरिस धर्म नहिं भाई 'का अर्थ है कि दूसरों की भलाई के समान दूसरा कोई धर्म नहीं है । जो व्यक्ति दूसरों को सुख पहुचाता है, दूसरो की भलाई कर के प्रसन्न होता है, उसके समान संसार में कोई भी व्यक्ति सुखी नहीं है । महर्षि दधीचि ने देवराज इंद्र को अपना अस्थि- पंजर दे दिया था, जिसका उपयोग करके इंद ने दानवों का बध किया था । महाराज शिवि ने अपने शरीर का मांस एक निरिह पक्षी की रक्षा के लिए अर्पित कर दिया था।इस तरह दूसरों की भलाई के लिए किए गए कार्य के द्वारा व्यक्ति को पुण्य के साथ - साथ यश भी प्राप्त होता है । परोपकार द्वारा विश्व में एकता तथा मानवता का विकास  होता है । लोग जाति तथा धर्म से ऊपर उठकर एक - दूसरे के करीब आते हैं,  जिससे भाईचारे तथा विश्व वंधुत्व की भावना का विकास होता है । इस तरह दूसरे को सुख देने जैसा नेक कार्य  इस दुनिया में नहीं है तथा दूसरे को पीडा पहुचाने जैसा निषिद्ध कार्य भी इस दुनिया में दूसरा नहीं है ।

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