परमिन्दर् – आम् अद्य तु वस्तुतः एव
निदाघतापतप्तस्य, याति तालु हि शुष्कताम्।
पुंसो भयार्दितस्येव, स्वेदवन्जायते वपुः॥
जोसेफः – मित्राणि यत्र-तत्र बहुभूमिकभवनानां, भूमिगतमार्गाणाम्, विशेषतः मैट्रोमार्गाणां, उपरिगमिसेतूनाम् मार्गेत्यादीनां निर्माणाय वृक्षाः कर्त्यन्ते। तर्हि अन्यत् किमपेक्ष्यते अस्माभिः? वयं तु विस्मृतवन्तः एव-
एकेन शुष्कवृक्षेण दह्यमानेन वनिना।
दह्यते तद्वनं सर्वं कुपुत्रेण कुलं यथा॥
पमिन्दर् – आम् एतदपि सर्वथा सत्यम्! आगच्छन्तु नदीतीरं गच्छामः! तत्र चेत् काञ्चित् शान्तिं प्राप्तु शक्ष्येम।
सरलार्थ :
परमिन्दर् – हाँ, आज तो वास्तव में ही
गर्मी की धूप में तपे हुए व्यक्ति का तालू निश्चय से सूख जाता है। भयभीत मनुष्य के समान ही शरीर मानो पसीने से भर जाता है।
जोसेफ – मित्रो! जहाँ-जहाँ बहुमंजिला भवनों के, भूमिगत (Under Ground) रास्तों के, विशेष रूप से मेट्रो के रास्तों के ऊपर से जाने वाले पुलों (Over Bridges) के रास्ते आदि | के निर्माण के लिए वृक्ष काटे जाते हैं तो हम और दूसरी दूसरी क्या अपेक्षा (आशा) करें? हम तो भूल ही गए हैं-
एक सूखे वृक्ष के अग्नि के द्वारा जलने से वह सारा वन वैसे ही जल जाता है, जैसे कुपुत्र (बुरे पुत्र) से सारा वंश (जल जाता है)।
परमिन्दर् – हाँ, यह भी पूरी तरह सच है। आओ नदी के किनारे चले हैं। वहाँ शायद कोई शान्ति प्राप्त हो सकेगी।
शब्दार्थ : वस्तुतः-वास्तव में। यातिप्राप्त होता है। तालु-तालु। हि-निश्चय से। शुष्कताम्-सूखेपन को। इव-के समान। काञ्चित्-कुछ। स्वेदवत्-पसीने की तरह। वपुः-शरीर। बहुभूमिक भवनानाम्-बहुमंजिले भवनों के। कर्त्यनते-काटे जाते हैं। अपेक्ष्यते-आशा की जाती है। विस्मृतवन्तः- भूल गए। शुष्कवृक्षेण-सूखे पेड़ से।
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ना जाने क्या होगा इस ओ पर वयो के बोस ने भी सवाल ।
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