Hindi, asked by adina64, 11 months ago

parampara par essay​

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Answered by abhi4298
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Explanation:

उपरोक्त सेमिनार में ‘परम्परा’ का कोई भी निश्चित अर्थ नहीं दिया गया, फिर भी स्थूल रूप से इसका क्षेत्र अवश्य बतलाया गया । परम्परा और आधुनिकता दोनों में ही विचारों की एक व्यवस्था, मूल्यों की एक व्यवस्था और संस्थाओं की व्यवस्था सम्मिलित है । ये विचार, मूल्य और संस्थायें परम्परा में अलग और आधुनिकता में अलग होते हैं ।

इस प्रकार परम्परा और आधुनिकता के जगत अलग-अलग है किन्तु कोई भी वास्तविक समाज न तो केवल परम्परागत है और न पूरी तरह से आधुनिक ही कहा जा सकता है इसलिए परम्परा और आधुनिकता का यह भेद केवल सैद्धान्तिक रूप से ही किया जा सकता है अन्यथा प्रत्येक समाज में परम्परा और आधुनिकता परस्पर मिले-जुले रूप में दिखलाई पड़ते हैं ।

डॉ. योगेन्द्र सिंह ने भारत में “परम्परा और आधुनिकता’ पर सेमिनार में अपना लेख प्रस्तुत करते हुए उसमें परम्परा की व्याख्या करने का प्रयास किया है । उनके अपने शब्दों में- “परम्परा समाज की एक सामूहिक विरासत है जो कि सामाजिक संगठन के सभी स्तरों में व्याप्त होती है, उदाहरण के लिए मूल्य-व्यवस्था सामाजिक संरचना और व्यक्तित्व की संरचना । इस प्रकार परम्परा सामाजिक विरासत को कहा जाता है इस सामाजिक विरासत के तीन तत्व हैं- मूल्यों की व्यवस्था, सामाजिक संरचना और उसके परिणामस्वरूप व्यक्तित्व की संरचना ।”

यह परम्परा का समाजशास्त्रीय अर्थ है । इसके अतिरिक्त भी परम्परा को अनेक अर्थ दिए गए हैं जैसे- अर्थ यात्मशास्त्रीय अर्थ अथवा ऐतिहासिक अर्थ । परम्परा का समाजशास्त्रीय अर्थ सामाजिक सांस्कृतिक और कार्यात्मक होता है । अध्यात्मशास्त्रीय अथवा दार्शनिक दृष्टि से परम्परा से तात्पर्य उन सत्यों से है जो अति प्राचीन काल में अभिव्यक्त हुए थे और जो शाश्वत सत्य हैं ।

इन सत्यों में आध्यात्मिक एकता पाई जाती है । ऐतिहासिक दृष्टि से प्रत्येक परम्परा उद्‌विकास के बाद पतन की सीढ़ी पर पहुँचती है । परम्परा आध्यात्मिक शक्तियों में निहित होती है जो कि मानव शक्तियों से परे होती हैं, इसलिए उसका विकास भी दैवी शक्ति पर निर्भर है । भिन्न-भिन्न परम्पराएँ परस्पर समन्वित नहीं होती बल्कि अपने-अपने भाग्य के अनुसार आगे बढ़ती, विकसित होती या पतन की ओर अग्रसर होती हैं ।

परम्परा का ऐतिहासिक अर्थ ऐतिहासिक दर्शन पर आधारित है । इसमें यथा सम्भव अनुभवात्मक और वस्तुगत दृष्टिकोण ग्रहण करने का प्रयास किया जाता है । परम्परा के अध्यात्मशास्त्रीय और ऐतिहासिक दोनों ही अर्थ समाजशास्त्र की दृष्टि से उपयुक्त नहीं है ।

समाजशास्त्र में परम्परा का सामाजिक-सांस्कृतिक अथवा कार्यात्मक दृष्टिकोण अपनाया जाता है परम्परा यह अर्थ अपेक्षाकृत आधुनिक काल में विकसित हुआ है । किसी भी समाज में संस्कृति में बराबर विकास होता रहता है, फिर भी कुछ मूल्य, संस्थाएँ और सामाजिक संरचना के कुछ अंग न्यूनाधिक रूप से स्थायी बने रहे हैं । इन्हें ही परम्परा कहा जा सकता है । परम्परा का यह प्रत्यय भारतवर्ष में परम्परागत संस्कृति के विवेचन से और भी अधिक स्पष्ट होगा ।

Answered by Jotsekhon55
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