Hindi, asked by guidelines2609, 1 year ago

Parikhsha ke din in hindi essay

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Hi Mate,

परीक्षा के दिन

शिक्षा व प्रकाश स्तम्भ है, जो मानव-जीवन का पध-प्रदर्शन करता है। शिक्षा सुख-शांति प्रदान करने का साधन है। सर्वांगीण विकास का परिचायक है। शिक्षाविहीन मनुष्य पशु-तुल्य कहा गया है। वैसे तो शिक्षा जीवनभर चलने वाली प्रक्रिया है । औपचारिक और अनौपचारिक स्थितियों में व्यक्ति अनेक बातें सीखता है। उनका अपने जीवन में उपयोग भी करता है। इस प्रकार जीवन में नए प्रयोग। व्यवहार में परिवर्तन ला देते हैं। व्यक्ति अपने लक्ष्यों को प्राप्त करने के प्रयास करता है। लक्ष्य प्राप्त हो पाया या नहीं, व्यक्ति में योग्यता किसी स्तर तक आई ? यह जॉच परीक्षा द्वारा की जाती हैं।

‘परीक्षा एक भय से भरा हुआ छोटा-सा नाम है। देखने में यह जितना छोटा है, भय का संचार करने में उतना ही सशक्त परीक्षा एक हीदी बनकर विद्यार्थियों के मन-मष्तिष्क पर छा जाती है। परीक्षार्थी की आँखों से नींद गायब हो जाती है। सिर दर्द से फटने लगता है। आंखें थकान के कारण बोझिल हो जाती हैं। मनोरंजन के सभी साधन छुट जाते हैं। केवल पुस्तक मेज पर होती है और परीक्षार्थी कुर्सी पर। छात्र बार-बार चाय या कॉफी पीकर, निद्रादेवी को अलविदा करके रट्टू तोते की भॉति याद करने में जुटे रहते हैं। कुछ छात्र नकल के नए-नए तरीके सोचते हैं और नकल की पर्धियों तैयार करते रहते हैं। वर्षभर मोज करने वाले छात्र भी परीक्षा के दिनों में गम्भीर दिखाई देते हैं।

स्वाभाविक रूप से यह प्रश्न उठता है कि जब परीक्षा इस कदर भयभीत करने वाली है, तो उसकी आवश्यकता क्या है ? इसका कारण है परीक्षा का महत्व परीक्षा ही वह कसौटी है जिस पर छात्र की योग्यता को परखा जाता है। शिक्षा को सरल बनाने के उद्देश्य से इसे विभिन्न चरणों में बांटा गया है। यह जॉच किए बिना कि छात्र एक कक्षा के पाठ्यक्रम का शान पूर्णतया पा चुका है या नहीं, उसे अगली कक्षा में कैसे भेजा जा सकता है परीक्षा के द्वारा छात्रों में प्रतिस्पर्धा को भाव, अध्ययन के प्रति रुचि और सजगता उत्पन्न की जा सकती है। प्रायः देखा जाता है कि जिन विषयों की परीक्षा नहीं होती, छात्र उनमें रुचि लेना भी बन्द कर देते हैं।

कहते हैं-‘पुनरावृति स्मृति की जनक है। अतः ज्ञान मस्तिष्क में स्थायी तभी होगा, जब इसकी पुनरावृति होगी। पुनरावृति परीक्षा के भय से ही होती है। परीक्षा के भय से छात्र अपना पाठ्यक्रम समय पर कंठस्थ करना चाहता है। इससे उसमें अध्यवसाय की प्रवृति जागृत होती है। परीक्षा केवल छात्र की योग्यता और पढ़ाने के ढंग का अंकन भी करती है। परीक्षा के माध्यम से शिक्षक यह जान पाते हैं। कि छात्र किसी विषय को पूरी तरह नहीं समझ पाए ? किसी स्थान पर कमी रह गई ? कहाँ-कहाँ सुधार की आवश्यकता है ? आदि। इसी उद्देश्य से ही प्राचीनकाल । में भी आचार्य अपने शिष्यों की समय-समय पर परीक्षा लेते थे। द्रोणाचार्य द्वारा ली गई पाण्डवों-कौरवों की निशानेबाजी की परीक्षा को कौन नहीं जानता ? इसमें । एकाग्रचित अर्जुन सफल रहा।

वर्तमान समय में भी परीक्षा के महत्व को नकारा नहीं जा सकता, किन्तु हमारी परीक्षा पद्धति दोषपूर्ण है। राह पद्धति रटने की प्रवृति को बढ़ावा देती है। छात्र पूरा वर्ष परिश्रम करने की अपेक्षा निकट आने पर कुछ गिने-चुने प्रश्न रट लेते हैं। यदि सौभाग्य से यही प्रश्न परीक्षा में पूछ लिए जाएं फिर तो वारे-न्यारें अक्सर देखा गया है कि गैस पेपर’ में से कुछ सम्भावित प्रश्न कंठस्थ करने वाले छात्र उन छात्रों से बाजी मार जाते हैं, जो सारा साल कठिन परिश्रम करते रहते हैं। इस प्रकार छात्र की वारतविक योग्यता का पता कैसे चल सकता है ?

परीक्षा-पद्धति का दूसरा दोष यह कि इसमें केवल 339% अंक पाने वाले छात्र। को भी उत्तीर्ण घोषित कर दिया जाता है। इसका अभिप्राय यह हुआ कि दो-तिहाई योग्यता की उसमें अभी भी कमी है।

तीसरे, इस पद्धति से लिखित रूप में तो जाँच कर ली जाती है, किन्तु इससे व्यावहारिक ज्ञान की जाँच नहीं हो पाती।

चौथे, यह पद्धति जहाँ परीक्षा का अत्यधिक भय उपजाकर स्वास्थ्य को हानि पहुँचाती है, वहीं अनैतिक भावना को प्रोत्साहन भी देती है। कई बार छात्र निरीक्षक को छरे की नोंक पर रखकर नकल करते हैं। निरीक्षक के मना करने पर सिर-धड़ से अलग करने की धमकी देते हैं। कई बार तो अपनी धमकी को क्रियात्मक रूप भी दे देते हैं।

अतः पीरक्षा पद्धति में सुधार लाने के लिए सबसे पहले हमें परीक्षा का भय मिटाना होगा। ऐसा वातावरण तैयार किया जाए, जिसमें छात्र हंसी-खुशी परीक्षा लेने को उद्यत हों। केवल वार्षिक परीक्षा को ही ध्यान में न रख कर, आन्तरिक परीक्षा को भी समान महत्त्व देना चाहिए, तभी छात्र पूरा वर्ष दिल लगाकर पढ़ेंगे। परीक्षा लिखित व मौखिक, सैद्धांतिक व व्यावहारिक होनी चाहिए। प्रश्न-पत्र में वस्तुनिष्ठ प्रश्न पूछे जाने चाहिएं, जो सारे पाठ्यक्रम पर आधारित हों। इससे रटने की प्रवृति मन्द होगी। परीक्षा प्रश्न-पत्र की जाँच के लिए पहले एक आदर्श-पत्र भी तैयार किया जाना चाहिए। इससे परीक्षक के व्यक्तिगत दृष्टिकोण का प्रभाव छात्रों के अंकों पर नहीं पड़ेगा। वैसे अच्छा तो यह होगा कि छात्रों को वर्ष-भर जो प्रतिदिन गृहकार्य दिया जाता है, उसके भी अंक दिए जाएं, एवं वार्षिक परीक्षा में इन्हें भी ध्यान में रखा जाए। इन उपायों से विद्यार्थी की पूर्ण योग्यता की जाँच भी की जा सकेगी और उन्हें परीक्षा का भूत नहीं सताएगा।

वास्तव में यदि देखा जाए तो शिक्षा कभी समाप्त नहीं होती। परीक्षा भी निरन्तर चलती रहती है। फिर भी एक विद्यार्थी के लिए यह विशेष महत्व रखती है। अतः परीक्षा इस ढंग से नियोजित होनी चाहिए कि छात्र परीक्षा के दिनों को। अपने गले का फंदा समझने की अपेक्षा केवल योग्यता का मापक ही मानें।

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