paropkar nibandh in hindi
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प्रस्तावना:- परोपकार शब्द ‘पर + उपकार‘ दो शब्दों के मेल से बना है। परोपकार का अर्थ होता है दूसरों का अच्छा करना। परोपकार का अर्थ होता है दूसरों की सहयता करना। परोपकार की भावना मानव को इंसान से फरिश्ता बना देती है। यथार्थ में सज्जन दूसरों के हित साधन में अपनी संपूर्ण जिंदगी को समर्पित कर देते है। परोपकार के समान कोई धर्म नहीं। मन, वचन और कर्म से परोपकार की भावना से कार्य करने वाले व्यक्ति संत की श्रेणी में आते है। ऐसे सत्पुरुष जो बिना किसी स्वार्थ के दूसरों पर उपकार करते है वे देवकोटि के अंतर्गत कहे जा सकते है। परोपकार ऐसा कृत्य है जिसके द्वारा शत्रु भी मित्र बन जाता है।
परोपकार की महत्वता:- जीवन में परोपकार का बहुत महत्व है। समाज में परोपकार से बढकर कोई धर्म नहीं होता । ईश्वर ने प्रकृति की रचना इस तरह से की है कि आज तक परोपकार उसके मूल में ही काम कर रही है। परोपकार प्रकृति के कण-कण में समाया हुआ है। जिस तरह से वृक्ष कभी भी अपना फल नहीं खाता है, नदी अपना पानी नहीं पीती है, सूर्य हमें रोशनी देकर चला जाता है। परोपकार एक उत्तम आदर्श का प्रतीक है। पर पीड़ा के समान कुछ भी का अधम एवं निष्कृष्ट नहीं है।
गोस्वामी तुलसीदास ने परोपकार के बारे में लिखा है.
“परहित सरिस धर्म नहिं भाई।
पर पीड़ा सम नहिं अधमाई।”
दूसरे शब्दों में, परोपकार के समान कोई धर्म नहीं है। विज्ञान ने इतनी उन्नति कर ली है कि मरने के बाद भी हमारी नेत्र ज्योति और अन्य कई अंग किसी अन्य व्यक्ति के जीवन को बचाने का काम कर सकते है। इनका जीवन रहते ही दान कर देना महान उपकार है। परोपकार के द्वारा ईश्वर की समीपता प्राप्त होती है। इस प्रकार यह ईश्वर प्राप्ति का एक सोपान भी है।
भारतीय संस्कृति का मूलाधार
भारतीय संस्कृति की भावना का मूलाधार परोपकार है। दया, प्रेम, अनुराग, करुणा, एवं सहानुभूति आदि के मूल में परोपकार की भावना है। गांधी, सुभाष चंद्र बोस, जवाहरलाल नेहरू तथा लाल बहादुर शास्त्री का नाम बड़े आदर के साथ लिया जाता है इन महापुरुषों ने इंसान की भलाई के लिए अपने घर परिवार का त्याग कर दिया था।
प्रकृति में परोपकार का भाव
प्रकृति मानव के हित साधन में निरंतर जुटी हुई है। परोपकार के लिए वृक्ष फलते – फूलते हैं, सरिताये प्रवाहित है। सूर्य एवं चंद्रमा प्रकाश लुटाकर मानव के पथ को आलोकित करते है। बादल पानी बरसाकर थे को हरा-भरा बनाते हैं, जो जीव- जंतुओं को राहत देते हैं। प्रकृति का कण-कण हमें परोपकार की शिक्षा देता है- नदियाँ परोपकार के लिए बहती है, वृक्ष धूप में रहकर हमें छाया देता है, चन्द्रमा से शीतलता, समुद्र से वर्षा, गायों से दूध, वायु से प्राण शक्ति मिलती है।
परोपकार से लाभ
परोपकारी मानव के हृदय में शांति तथा सुख का निवास है। इससे ह्रदय में उदारता की भावना पनपती है। संतों का हृदय नवनीत के समान होता है। उनमे किसी के प्रति द्वेष तथा ईर्ष्या नहीं होती। परोपकारी स्वम् के विषय में चिंतन ना होकर दूसरों के सुख दुख में भी सहभागी होता है। परोपकार की ह्रदय में कटुता की भावना नहीं होती है। समस्त पृथ्वी ही उनका परिवार होती है। गुरु नानक, शिव, दधीचि, ईसा मसीह, आदि ऐसे महान पुरुष अवतरित हुए जिन्होंने परोपकार के निमित्त अपनी जिंदगी कुर्बान कर दिया।
उपसंहार:- परोपकारी मानव किसी बदले की भावना अथवा प्राप्ति की आकांक्षा से किसी के हित में रत नहीं होता, वरन् इंसानियत के नाते दूसरों की भलाई करता है। “सर्वे भवंतु सुखिनः सर्वे संतु निरामया “ के पीछे भी परोपकार की भावना ही प्रतिफल है। परोपकार सहानुभूति का पर्याय है। यह सज्जनों की विभूति होती है। परोपकार आंतरिक सुख का अनुपम साधन है। हमें “स्व” की संकुचित भावना से ऊपर उठा कर “पर” के निमित्त बलिदान करने को प्रेरित करता है।
इस हेतु धरती अपने प्राणों का रस संचित करके हमारी उदर पूर्ति करती है मेघ प्रतुपकार में पृथ्वी से अन्य नहीं मांगते। वे युगो – युगो से धरती के सूखे तथा शुष्क आँगन को जलधारा से हरा भरा तथा वैभव संपन्न बनाते हैं। राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त की हमे परोपकार करने की निम्नलिखित शब्दों में प्रेरणा दे रहे है वो इस प्रकार है।
“यही पशु प्रवृत्ति है कि आप – आप ही चरे।
वही मनुष्य है कि जो मनुष्य के लिए मरे।”
परोपकार शब्द का अर्थ है दूसरों का भला करना। अपनी चिन्ता किए बिना, शेष सभी (सामान्य-विशेष) के भले की बात सोचना, आवश्यकतानुसार तथा यथाशक्ति उनकी भलाई के उपाय करना ही परोपकार कहलाता है। परोपकार के लिए मनुष्य को कुछ-न-कुछ त्याग करना पड़ता है।
परोपकार की यह शिक्षा हमें प्रकृति से मिली है। प्रकृति के प्रत्येक कार्य में हमें सदैव परोपकार की भावना निहित दिखाई पड़ती है। नदियां अपना जल स्वयं न पीकर दूसरों की प्यास बुझाती हैं, वृक्ष अपने फलों को दूसरों के लिए अर्पण करते हैं, बादल पानी बरसा कर धरती की प्यास बुझाते हैं। गऊएं अपना दूध दूसरों में बांटती हैं। सूर्य तथा चन्द्रमा भी अपने प्रकाश को दूसरों में बांट देते हैं। इसी प्रकार सज्जनों का जीवन परोपकार में ही लगा रहता है।
यदि हम अपने प्राचीन इतिहास पर दृष्टिपात करें तो हमें अनेक ऐसे उदाहरण मिलेंगे जिनसे ज्ञात होता है कि किस तरह यहां के लोगों ने परोपकार के लिए अपनी धन-सम्पत्ति तो क्या अपने घर-द्वार, राजपाट और आवश्यकता पड़ने पर अपने शरीर तक अर्पित कर दिए। महर्षि दधीचि के उस अवदान को कैसे भुला सकते हैं जिन्होंने देवताओं की रक्षा के लिए अपने प्राण सहर्ष ही न्यौछावर कर दिए थे अर्थात् उनकी हड्डियों से वज्र बनाया गया जिससे वृत्रासुर राक्षस का वध हुआ। राजा शिवि भी ऐसे ही परोपकारी हुए हैं, उन्होंने कबूतर के प्राणों की रक्षा के लिए भूखे बाज को अपने शरीर का मांस काट-काट कर दे दिया था।
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