paryavaran chakra ko banae rakhne me praniyo ki Bhumika( In 150 words)
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-मनमोहन कुमार आर्य-environment
सारी दुनिया में पर्यावरण एक ऐसा ज्वलन्त विषय है जिसको लेकर बुद्धिजीवी वर्ग अत्यन्त चिन्तित व आन्दोलित है। ऐसा इस कारण से है कि पर्यावरण कोई साधारण समस्या नहीं है अपितु यह मनुष्य जाति व समस्त प्राणी जगत के जीवन मरण का प्रष्न है। यदि पर्यावरण को सुरक्षित व नियंत्रित न किया गया तो मानव जाति सहित समस्त प्राणी जगत का भविष्य अनिश्चित, असुरक्षित, अन्धकारमय व विनाशकारी होकर उसके अस्तित्व को समाप्त भी कर सकता है। पर्यावरण प्राणी जगत के लिए ऐसा ही है जैसा कि चेतन-तत्व जीवात्माओं के लिए उनके अपने शरीर अर्थात् आत्मा के लिए मानव शरीर। ऐसा इसलिए है कि मानव शरीर उसमें निवास करने वाली जीवात्मा का एक प्रकार से पर्यावरण ही है। हम अपने शरीर की रक्षा के सभी उपाय करते हैं। स्नान करके इसे स्वच्छ रखना, शुद्ध वायु में श्वास, शुद्ध जल का पान, पौष्टिक व सन्तुलित भोजन, समय पर सोना व जागना, पुरूषार्थ व तप, ईश्वरोपासना, मन व मस्तिष्क में सत्य व शुद्ध विचार, यज्ञ-अग्निहोत्र, माता-पिता की सेवा, परोपकार, समाज सेवा, निर्धनों की सहायता, भूखों को भोजन, अज्ञानियों को शिक्षा आदि सब कुछ करते हैं। इसका प्रभाव हमारे शरीर पर पड़ता है और वह स्वस्थ, निरोग, दीर्घजीवी, बलशाली, प्रतिष्ठित, यशस्वी, स्वावलम्बी, सुख व शान्ति से युक्त रहता है। जिस प्रकार हमारी आत्मा अर्थात् हमें, यह जड़ व मरणधर्मा शरीर स्वस्थ व निरोगी चाहिये, उसी प्रकार से शरीर को स्वयं को स्वस्थ व निरोग रखने के लिए शुद्ध, सन्तुलित, प्रदूषण रहित, हरा-भरा प्राकृतिक वातावरण तथा शुद्ध अन्न-वनस्पति-औषधियां चाहिये। यदि षरीर को स्वच्छ व प्रदूषण रहित वातावरण व पर्यावरण नहीं मिलेगा तो हमारे शरीर का अस्तित्व खतरे में पड़ जायेगा और जीवन के सामान्य कार्यों को करने के स्थान पर हम जीवन की पूरी अवधि इसे रोगों से बचाने व आ गये अनचाहे रोगों के उपचार आदि में लगे रहेंगे। सुख का नाम भी शायद जीवन में याद न रहें, ऐसी स्थिति पर्यावरण के प्रदूषित होने पर भविष्य में आ सकती है।
आईये, कुछ चर्चा हम पर्यावरण की भी कर लेते हैं। पर्यावरण, पृथिवी-अग्नि-जल-वायु-आकाष की समस्त प्राणी जगत के जीवन-आयु-स्वास्थ्य के अनुकूल षुद्ध व आदर्ष स्थिति को कहते हैं। यदि हमारा वायुमण्डल षुद्ध व प्रदूषण से मुक्त है, नदियों, नहरों, कुओं, तालाब, सरोवरों, वर्षा व खेतों में सिंचाई का जल भी शुद्ध व हानिकारक प्रभाव से मुक्त है, हमारी पृथिवी की उर्वरा-षक्ति अपनी अधिकतम क्षमता के साथ विद्यमान है, हमारे जंगल घने व सुरक्षित है, देश के 3/4 भाग में वन व सभी प्रकार के वन्य-जन्तु हैं, भूमि के शेष भाग में कृषि-खेत, नगर-गांव-सड़कें व उद्योग आदि हैं, खनन द्वारा भूमि का अनावश्यक व अनुचित दोहन नहीं होता है, वातावरण स्वास्थ्य के अनुकूल है, समय पर वर्षा होती हो, वर्षा का जल पीने योग्य हो तथा उसमें हानिकारक तत्व घुले हुए न हों, सभी ऋतुयें समय पर आती-जाती रहती हों, तो यह मान सकते हैं कि हमारा पर्यावरण ठीक व सामान्य है। आज की स्थिति इसके सर्वथा विपरीत है। अतः अब यह देखना आवष्यक है कि यह स्थिति उत्पन्न कैसे हुई?
हमारी सृष्टि आज से 1,96,08,53,114 वर्ष पूर्व एक सत्य, चेतन व अपौरूषेय सत्ता द्वारा रची गई है। तभी से इस पर मानव वा प्राणी जगत भी हैं, वनस्पतियां, जल, अग्नि, वायु आदि सब कुछ है। आरम्भ में वायुमण्डल एवं पूरा पर्यावरण आदर्श रूप में था, अर्थात् उसमें किंचित भी असन्तुलन या प्रदूषण नहीं था। जनसंख्या कम थी। धीरे-धीरे जनसंख्या में वृद्धि होने लगी। इस कारण, सम्भवतः एकान्त प्रियता या भीड़भाड़ से दूर रहने के स्वभाव के कारण, लोग दूर-दूर जा कर बसने लगे और आरम्भ की कुछ षताब्दियां व्यतीत होने के साथ पृथिवी के चारों ओर मानव पहुंच गये व अपने निवास स्थान पृथिवी के सभी भागों में बना लिये। मनुष्य जहां रहता है वहां उसके शौच, रसोई या भोजन, वस्त्रों को धोने व अन्य कार्यों से जल व वायु में प्रदूषण उत्पन्न होता है। हमारे प्राचीन ऋषि-मुनि प्रदूषण व पर्यावरण के बारे में बहुत सतर्क, सजग व सावधान थे। उन्होंने मानव जीवन पद्धति सपमि जेलसम को कम से कम आवश्यकताओं वाली बनाया। वह जानते थे कि जितनी सुख की सामग्री प्रयोग में लायी जायेगी, उतना ही अधिक प्रदूषण होगा और उससे मनुष्य का जीवन, स्वास्थ्य व सुख-शान्ति प्रभावित होंगे। इसे इस रूप में समझा जा सकता है कि हमारी इन्द्रियों की षक्ति सीमित होती है। इसे जितना कम से कम प्रयोग करेंगे व खर्च करेंगे, उतना अधिक यह चलेगीं या काम करेगी। जो व्यक्ति अधिक सुख-साधनों का प्रयोग करता है उसकी इन्द्रिया व षरीर के अन्य उपकरण, हृदय, पाचन-तन्त्र यकृत-प्लीहा-लीवर-किडनी आदि प्रभावित होकर विकारों आदि से ग्रसित होकर रूग्ण हो जाते हैं। होना तो यह चाहिये कि हम तप, पुरूषार्थ, श्रम, योगासन, हितकर षाकाहारी भक्ष्य श्रेणी का भोजन, अभक्ष्य पदार्थों का सर्वथा व पूर्णतया त्याग, स्वाध्याय, ध्यान व चिन्तन पर अधिक ध्यान दें जिससे हमारा षरीर स्वस्थ व सुखी रहे। वायु व जल प्रदूषण को रोकने के लिए हमारे पूर्वजों ऋषियों ने एक ऐसी अनोखी नित्यकर्म विधि बनाई जो सारी दुनियां में अपनी मिसाल स्वयं ही है। इसके लिए उन्होंने वेद मन्त्रों के उच्चारण के साथ गोघृत, स्वास्थ्यवर्धक वनस्पतियों, ओषधियों, सुगन्धित व पुष्टिकारक पदार्थो से दैनिक अग्निहोत्र का विधान किया।
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