Paryavard sankat par nibad
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अगर एक नजर पर्यावरण संकट पर डालें तो स्पष्ट है कि विश्व की करीब एक चौथायी जमीन बंजर हो चुकी है और यही रफ्तार रही तो सूखा प्रभावित क्षेत्र की करीब 70 प्रतिशत जमीन कुछ ही समय में बंजर हो जायेगी। यह खतरा इतना भयावह है कि इससे विश्व के 100 देशों की एक अरब से ज्यादा आबादी का जीवन संकट में पड़ जायेगी। पर्वतों से विश्व की आधी आबादी को पानी मिलता है। हिमखण्डों के पिघलने, जंगलों की कटायी और भूमि के गलत इस्तेमाल के चलते पर्वतों का पर्यावरण तन्त्र खतरे में है। विश्व का आधे से अधिक समुद्र तटीय पर्यावरण तन्त्र गड़बड़ा चुका है। यह गड़बड़ी यूरोप में 80 प्रतिशत और एशिया में 70 प्रतिशत तक पहुँच चुकी ह
वर्ष 1900 के मुकाबले समुद्री तल करीब 10 से 20 सेण्टी मीटर के बीच बढ़ चुका है। इसके कारण हवाओं की मार से करीब 4.6 करोड़ लोग प्रति वर्ष प्रभावित होते हैं। यदि समुद्र तल बढ़कर 50 सेण्टी मीटर हो गया तो इसकी चपेट में विश्व की 10 करोड़ आबादी आ जायेगी। पर्यावरण के नष्ट होने से करीब 800 करोड़ से ऊपर प्रजातियाँ विलुप्त हो चुकी हैं और यह सिलसिला जारी रहा तो करीब 11000 प्रजातियों के विलुप्त होने का खतरा बढ़ जायेगा।
क्या है पर्यावरण संकट का कारण?
पर्यावरण संकट का प्रथम व सबसे बड़ा कारण उच्च उपभोक्तावादी संस्कृति है। यह उपभोक्तावादी संस्कृति ऐसे प्रलोभनकारी उद्योग को विकसित करती है जो कि सेवाओं व वस्तुओं से सम्बन्धित अभीष्ट इच्छा की पूर्ति करता है। इस उपभोक्ता संस्कृति का मूल उद्देश्य इसमें निहित होता है कि वह अधिक से अधिक मात्रा में अपनी जैविक आवश्यकताओं की पूर्ति हेतु पर्यावरण संसाधनों का दोहन कर सके। वह इसे जन्मजात अधिकार के रूप में देखता है तथा भौगोलिक अध्येता भी इस दिशा में पर्यावरण व भविष्यवाद की द्वन्द्वता को स्वीकार करते हैं क्योंकि व्यक्तियों की आर्थिक आत्मीयता, प्राकृतिक उद्देश्यों को नकारती है।
दूसरा कारण वनों का दिनों-दिन कम होना है। दुनिया के कुल भू-क्षेत्र का करीब 30 प्रतिशत वन क्षेत्र है। दुनिया भर में 9.8 अरब एकड़ में फैले वन क्षेत्र का लगभग दो-तिहाई भाग रूस, ब्राजील, कनाडा, अमेरिका, चीन, ऑस्ट्रेलिया, कांगो, इण्डोनेशिया, अंगोला, तथा पेरू जैसे 10 देशों में सिमटा हुआ है। 20वीं शताब्दी के आखिरी दशक में ही प्रति वर्ष करीब 3.8 करोड़ एकड़ वन क्षेत्र समाप्त हुआ। लाख प्रयत्नों के बावजूद 2.4 करोड़ एकड़ वन क्षेत्र प्रति वर्ष समाप्त होता आ रहा है। यह रफ्तार रही तो आने वाले 40-50 वर्षों में धरती से पेड़-पौधों का नामो-निशान मिट जायेगा। इन वनों की विनाश लीला ने लोगों के जीवन को प्रभावित किया है।
तीसरा कारण जब प्राकृतिक स्रोत सीमित हो तथा जनसंख्या सीमित हो तो यह संसाधन का कार्य करती है लेकिन इनके मध्य असन्तुलन, पर्यावरण के लिए संकट है। जनसंख्या जब बिना प्रभावकारी राजनीतिक, आर्थिक नीति के तीव्र गति से बढ़ती है तब साधन सीमित हो जाते हैं तथा भोजन, स्वास्थ्य सेवाओं में कमी तथा साथ ही साथ जीवन प्रत्याशा में कमी, मृत्यु दर में वृद्धि होती है। जनसंख्या के दबाव में वनों का दोहन, भूमि का अधिक अधिग्रहण, ओजोन क्षरण, जैव विविधता में क्षरण, ग्रीन हाउस गैसों में वृद्धि, जल प्लावन, लवणीकरण, उसरीकरण, अम्ल वर्षा की भूमिका बढ़ती जाती है।
चौथा कारण जैसे-जैसे समाज में और विशेषतः प्रौद्योगिकी का विकास हो रहा है वैसे-वैसे मनुष्य और पर्यावरण के मध्य अन्तःक्रिया ने एक खतरनाक मोड़ ले लिया है। वायु, जल, वायुमण्डल, वन, नदियाँ, पौधे और प्रकृति के अनेक तत्वों को प्रौद्योगिकी क्षमता ने प्रभावित किया है। क्योंकि इन्हीं की बदौलत प्राकृतिक संसाधनों का दोहन हुआ है और इनके अति दोहन ने पर्यावरण के सामंजस्य को विचलित कर दिया है। आज स्वस्थ्य सुरक्षा भावना की कमी जैसी समस्याएँ प्रादुर्भूत हुई हैं जो पूर्णतया औद्योगिक विकास का प्रतिफल है। इस प्रौद्योगिकी विकास की बदौलत ही आज हम जेनेटिकली मॉडीफाइड खाद्यान्न पर निर्भर हो गये हैं। इसने मानव स्वास्थ्य को खराब कर दिया है व शारीरिक तथा मानसिक असुरक्षा तन्त्र का विकास किया है। इस प्रौद्योगिकी विकास ने रासायनिक स्राव के माध्यम से वातावरण को प्रदूषित किया है।
आज पूरे विश्व की आबादी में करीब एक अरब लोगों को पानी नहीं मिलता है। विकासशील देशों में करीब 22 लाख लोग गन्दे पानी से पैदा होने वाली बीमारियों के कारण मर जाते हैं।इसका तीसरा प्रमुख प्रभाव जल संकट के रूप में सामने आता है। आज औद्योगिक प्रदूषण, खनिज तेल व कचरे के बहिःस्राव ने जल को सीधा प्रभावित किया है। इसके अतिरिक्त औद्योगिक विकास ने प्राकृतिक संसाधन के रूप में जल की मात्रा को दिनों-दिन कम कर दिया है। आज पूरे विश्व की आबादी में करीब एक अरब लोगों को पानी नहीं मिलता है। विकासशील देशों में करीब 22 लाख लोग गन्दे पानी से पैदा होने वाली बीमारियों के कारण मर जाते हैं। धरती के सम्पूर्ण जल में स्वच्छ जल का प्रतिशत 0.3 से भी कम है। आने वाले अगले 20 वर्षों में क्रियाकलाप हेतु 57 फीसदी अतिरिक्त जल की आवश्यकता होगी। अतः इस बात की सम्भावना व्यक्त की जा रही है कि 2025 तक आते-आते एक तिहायी देशों में रहने वाली विश्व की दो तिहायी आबादी पानी के गम्भीर संकट से जूझती नजर आयेगी। इसके अतिरिक्त कृषि, मत्स्य संसाधन, व्यापार इत्यादी अनेक क्षेत्र पर्यावरण संकट की मार झेलते हैं।