पशुओं की स्वामीभक्ति का वर्णन
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मनुष्य और पशु का रिश्ता उतना ही पुराना है जितनी पुरानी हमारी सभ्यता। जब खाने-ओढ़ने को कुछ नहीं बना था, तो आदि मानव पशु का मांस खाकर ही जिंदा रहता था। पशु की खाल से अपना तन ढंकता था और पशुओं की हड्डियों से ही हथियार बना कर अपनी रक्षा करता था। अपने वजूद के लिए इस रॉकेट युग में भी मनुष्य जितना पशु पर निर्भर है, पशु उतना मनुष्य पर नहीं। जिंदा रहने के लिए पशु की जरूरतें तो नाममात्र की ही हैं, जिन्हें वह मनुष्य के बिना भी पूरी कर सकता है। खाने के लिए घास चाहिए या मांस- दोनों उसे कुदरत की ओर से भरपूर मात्रा में मयस्सर है। जल और थल में करोड़ों जानवर हैं, जो मनुष्य की संगत में नहीं रहते, लेकिन खूब मजे से जिंदा हैं। पर मनुष्य की जरूरतों की कोई सीमा नहीं। उसे जरूरत से कहीं ज्यादा सामान अपने ऐशो-आराम के लिए चाहिए। लिहाजा पशु तो मनुष्य के बिना रह सकता है और हर दौर में बखूबी रहता आया है। लेकिन तमाम मशीनी और हाई-फाई उपलब्धियों के बावजूद मनुष्य का पशु के बिना रहना असंभव है। जिंदगी में कदम-कदम पर काम पड़ता है पशु से मनुष्य का। कहीं-कहीं पर तो पशुओं पर निर्भरता इतनी अधिक है कि ये न हों तो इनसानी जिंदगी ठहर सी जाए। जिस्म को चमकाने- दमकाने वाले कई क्रीम और लोशन तो बनते ही पशुओं की चर्बी से हैं। इकॉनमी में पशुओं के योगदान का हिसाब लगाने बैठें तो बात अरबों में जाकर बैठेगी। वह जीवित अवस्था में तो काम आता ही है, मरे पशु का चमड़ा और हड्डियां भी मनुष्य के कई काम संवार जाती हैं, जैसा कि गुरुवाणी का भी फरमान है- पसु मरे दस काज सवारै। गुरुवाणी कहती है - 'सुआमी को ग्रिहु जिउ सदा सुआन तजत नही नित। नानक इह बिधि हरि भजउ इक मन हुइ इक चिति।।' आलसी या कामचोर नहीं है जानवर। सो, वह हड़ताल पर नहीं जाता, गद्दारी नहीं करता। जेहन में लाइए चाबुक पर चाबुक खाकर और तेज भागते घोड़े की तस्वीर। इंसान की दुनिया में मूर्खता और हंसी का पात्र समझे जाने वाले गधे को देखिए। मालिक की खिदमत में सदा सिर झुका रहता है उसका। आदम की दुनिया में कहां है इतनी खामोश खिदमतगारी। इसके बिल्कुल उलट अक्सर पशु के मुकाबले इनसान का अकृतज्ञ स्वभाव देखने को मिलता है, जैसा कि फिल्म 'मेरा नाम जोकर' के एक गाने की ये लाइनें- 'माल जिसका खाता है उसके ही सीने में घोंपता कटार है।' चारा खाकर अमृत समान दूध देने के पशु स्वभाव का गुणगान गुरुवाणी करती है- 'पशु मिले चंगयाईआं खल खावै अमृत देई।' इस धरा पर पशु तो अनगिनत हैं, लेकिन चालाक आदमी ने उन्हीं पशुओं के साथ दोस्ती की पेंग बढ़ाई, उन्हीं पशुओं को पाला- पोसा जिनसे उसे कुछ फायदा होता है। कुत्ते से लेकर घोड़ा, गाय, बैल, हाथी, ऊंट वगैरह तक किसी की भी मिसाल लीजिए -सब आदमी के कामगार हैं। उपयोगी कामगार। बल्कि गुलाम कहना चाहिए। अवसाद में पशु से बेहतर कोई दोस्त नहीं हो सकता। मालिक के प्रति उसके प्रेम प्रदर्शन के पीछे कोई स्वार्थ नहीं होता। लेकिन क्या मनुष्य ने जानवर के उपकारों के लिए उनके प्रति उतनी ही कृतज्ञता प्रकट की? नहीं, कतई नहीं। बल्कि आपस में गाली-गलौज के लिए उन्हीं पशुओं के नाम इस्तेमाल किए, जिनसे वह बीसियों काम लेता है। इस अकृतज्ञता को क्या कहा जाए? वफादारी और कृतज्ञता में पशुओं का कोई सानी नहीं। एक पालतू कुत्ते को घर के बाहर बांध कर आप जितने चैन की नींद सो सकते हैं, उतने निश्चिंत तो आप दस बंदूकधारी रख कर भी नहीं हो सकते। गली के कुत्ते को एक सूखी और बासी रोटी ही डाल दीजिए। आपके दरवाजे पर तन कर बैठ जाएगा। मजाल है, उसके होते कोई आपकी दहलीज लांघ पाए।
Abhinendrathakur:
सही है न
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o
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ovgn bilgulm. beehj4ujbbscnkoi 6inbbh
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